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जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में मृत्यु विचार : १०७
है, लेकिन दोनों अवस्थाओं में किया जाने वाला देहत्याग भिन्न है। एक आवेशयुक्त अवस्था में किया जाता है तो दूसरा आवेश मुक्त अवस्था में, अत: दोनों में भेद है।
इनमें अन्तर स्पष्ट करते हुए सर्वार्थसिद्धि२२ एवं तत्वार्थवार्तिक२३ में कहा गया है कि आत्महत्या जहाँ व्यक्ति बलपूर्वक या अपनी आन्तरिक इच्छा के विरुद्ध करता है, वहीं समाधिमरण कभी भी बलपूर्वक नहीं करता है। वह व्यक्ति की स्वतः अन्त: प्रेरणा पर निर्भर करता है। व्यक्ति निश्चय करता है कि धर्म की रक्षा के लिए समाधिमरण द्वारा देहत्याग करे या नहीं।
तत्वार्थवार्तिक के अनुसार राग-द्वेष क्रोधादिपूर्वक प्राणों के नाश किए जाने को अपघात या आत्महत्या कहते हैं। लेकिन समाधिमरण में न तो राग है, न द्वेष है और न ही प्राणों के त्याग का अभिप्राय ही है। इसे ग्रहण करनेवाला व्यक्ति जीवन
और मरण के प्रति अनासक्त रहता है।२४ जीवन और मरण के प्रति अनासक्त रहने के कारण उसे न तो जीवन की आकांक्षा होती है और न ही शीघ्र मृत्य की, अर्थात वह जो देहत्याग करता है मात्र इस भाव से कि मृत्यु अनिवार्य है, यह शरीर नष्ट होने वाला है। इसके प्रति राग रखना व्यर्थ है। अगर यह शरीर नष्ट होनेवाला है तो इसका पालन-पोषण करने से कोई लाभ नहीं है। अत: इसके प्रति अनासक्त होना ही श्रेयस्कर है। जबकि आत्महत्या करनेवाले व्यक्ति के मन में यह भावना नहीं रहती है। उसके मन में मात्र यही भावना रहती है कि इस देह का त्याग करना है, वह भी शीघ्रतापूर्वक। समत्व का भाव उसके मन में नहीं रहता है। अपने तीव्र आवेग की पूर्ति के लिए वह त्याग करता है।
समाधिमरण और आत्महत्या करने की परिस्थितियाँ भी भिन्न हैं। समाधिमरण व्यक्ति मात्र उन परिस्थितियों में प्रसन्नतापूर्वक करता है, जिनमें की जीवन यापन करना कठिन प्रतीत होता है। जैसे - अकाल, भुखमरी, उपसर्ग, वृद्धावस्था, असाध्य रोग आदि के कारण शरीर जर्जर हो जाने पर धर्म-रक्षार्थ व्यक्ति अपना देहत्याग करता है, लेकिन आत्महत्या किसी भी समय किसी भी परिस्थिति में की जाती है। इसके लिए अकाल, उपसर्ग, वृद्धावस्था आदि परिस्थितियाँ अनिवार्य नहीं हैं।२५
__ जैन परम्परा के अनुसार समाधिमरण शान्ति एवं विवेक-पूर्वक देहादि पदार्थों के प्रति ममत्व का त्याग है, जो जीवन की सम्पूर्णता का एक अंग है। समाधिमरण एक आध्यात्मिक क्रिया है जो आत्मसुधार एवं आत्म-उत्थान का अंतिम एवं सर्वोत्तम विचारपूर्ण यत्न है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि योगवासिष्ठ एवं जैन दर्शन दोनों ही मृत्यु को हर्ष का विषय मानते हैं, दु:ख का नहीं। जीवा और मृत्यु एक ही सिक्के के दो पक्ष
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