________________
१२४ : श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ / जनवरी - जून २००४
कृष्णरुक्मिणीचौपाई (रचनाकाल वि०सं० १६७६ ) के रचनाकार लब्धिरत्न ने भी अपने प्रगुरु के रूप में धर्मसुन्दर का उल्लेख किया है। २३ उपरकथित गुर्वावली में भी धर्मसुंदर का नाम आ चुका है। समान नाम, समसामयिकता और गच्छसाम्य के आधार पर धर्मसुन्दर नामधारक दोनों मुनिजनों को अभिन्न माना जा सकाता है।
अघटितराजर्षिचौपाई ( रचनाकाल वि०सं० १६६७ ) के कर्ता भुवनकीर्तिगणि; सुदर्शन श्रेष्ठीरास (रचनाकाल वि० सं० १६६१ ) के कर्ता सहजकीर्ति, २५ मंगलकलशचौपाई (वि० सं० १८३२), इलापुत्ररास (वि०सं० १८३९ ) और तेजसारचौपाई (वि०सं० १८३९ ) के रचनाकार रत्नविमल २६ आदि कई विद्वान् भी यद्यपि क्षेमकीर्तिशाखा से ही सम्बद्ध थे किन्तु क्षेमकीर्तिशाखा की पूर्वप्रदर्शित गुरु-शिष्य परम्परा की दोनों तालिकाओं में प्रदर्शित मुनिजनों से इनका क्या सम्बन्ध रहा, यह अन्वेषणीय है। ठीक यही बात वि० सं० १७७९ में सिद्धान्तचन्द्रिका के प्रतिलिपिकार गंगविजय के बारे में भी कही जा सकती है। प्रतिलिपिकार गंगविजय ने प्रतिलिपिप्रशस्ति के अन्त में अपनी गुरु- परम्परा २६अ दी है, जो इस प्रकार है -
रत्नवल्लभ
ר
यशोवर्धन गणि I
गंगविजय (वि० सं० १७७९ में सिद्धान्तचन्द्रिका के प्रतिलिपिकार)
मुनिगजेन्द्र
२४
जिनहर्ष के गुरु-भ्राताओं की भी शिष्य - प्रशिष्य परम्परा लम्बे समय तक चलती रही। इसमें भी अनेक रचनाकार हुए। २७
जिनहर्ष के पट्टधर सुखवर्धन हुए जिन्हें वि० सं० १७१३ में जिनचन्द्रसूरि ने दीक्षित किया था। २८ इनके पट्टधर दयासिंह भी वि० सं० १७३९ में जिनचन्द्रसूरि द्वारा ही दीक्षित हुए। दयासिंह के शिष्य रामविजय अपरनाम रूपचन्द्र को भी उक्त आचार्य ने ही दीक्षित किया था । २९ रामविजय अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् थे । उपाध्याय क्षमाकल्याण ने इन्हें अपने विद्यागुरु के रूप में उल्लिखित किया है। इनके द्वारा रचित २८ ग्रन्थों का उल्लेख मिलता है । ३° रामविजय के पश्चात् वाचक पुण्यशील, वाचक समयसुन्दरगणि, वाचक शिवचन्द्रगणि क्रमशः पट्टधर बने। इसी परम्परा की अंतिम कड़ी में जयपुर के यति श्यामलाल जी ३१ हुए जिसका उपाश्रय वहां जौहरी बाजार में आज भी विद्यमान है। इनके एक शिष्य विजयचन्द्र 'जिनविजयेन्द्रसूरि' के नाम से खरतरगच्छ की भट्टारकीय शाखा के पट्टधर हुए जिनका वि०सं० २०२० में देहान्त हुआ। इस प्रकार इस शताब्दी के मध्य तक खरतरगच्छ की क्षेमकीर्ति शाखा का अस्तित्त्व रहा।
उक्त सभी साक्ष्यों के आधार पर इस शाखा के मुनियों के गुरु-शिष्य परम्परा की एक विस्तृत तालिका का पुर्नगठन किया जा सकता है जो इस प्रकार है :
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org