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तीर्थंकर पार्श्वनाथ की प्रतिमाएँ
(होशंगाबाद संग्रहालय के
सन्दर्भ में)
श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ जनवरी- जून २००४
ऋषभदेव द्वारा स्थापित जैन धर्म भारत का एक प्राचीनतम धर्म है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि इस धर्म की जड़ें पाताल से भी गहरी हैं। विश्व को 'वसुधैव कुटुम्बकम्', 'जियो और जीने दो', 'अहिंसा परमो धर्म:' जैसे महान् उद्घोष करने वाला जैन धर्म अपने २४ तीर्थंकरों में विश्वास करता है, जिन्हें वह जिन अथवा 'देवाधिदेव' की संज्ञा प्रदान करता है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव तथ अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी माने जाते हैं। तेइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ हुए।
डॉ० गुलनाज तंवर *
तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ पूर्ण रूप से सम्मानीय हैं। असामान्य रूप से इन प्रतिमाओं के कई सिर, हाथ और पैर नहीं होते हैं। केवल दो ही आसनों में ये मूर्तियाँ मिलती हैं- ध्यान मुद्रा में बैठे हुए तथा कायोत्सर्ग मुद्रा में सीधे खड़े हुए। जैन धर्म की धारणा के अनुसार ये दोनों मुद्राएँ यौगिक मुद्राएँ हैं। ध्यान मुद्रा की स्थिति में बैठे तीर्थंकरों की प्रतिमाएँ बुद्ध प्रतिमाओं की भाँति हैं, किन्तु तीर्थंकरों के वक्ष पर श्रीवत्स का चिन्ह होने के कारण ये प्रतिमाएँ बुद्ध प्रतिमाओं से सरलता से अलग की जा सकती हैं। पूर्वी तथा दक्षिणी भारत की मध्यकालीन तीर्थंकर प्रतिमाओं में इस चिन्ह का अधिकांशतः प्रभाव मिलता है । सर्वतोभद्र अथवा चौमुख प्रतिमाएँ कुषाण काल से बननी प्रारम्भ हुईं तथा मध्यकाल तक निर्मित होती रहीं। होशंगाबाद क्षेत्र में प्राप्त प्रतिमाओं में भी वक्षस्थल पर श्रीवत्स - चिन्ह का अंकन है।
होशंगाबाद क्षेत्र न केवल हिन्दू धर्म की मूर्तिकला से अपितु जैन धर्मकी प्रतिमाओं की मूर्तिकला से भी गौरवान्वित रहा है।
होशंगाबाद जिला मध्य नर्मदा घाटी तथा सतपुड़ा पठार के उत्तरी उपान्त पर स्थित है। यह २१°४' तथा ५९°३' के समानान्तर तथा ७६ ४६' तथा ७८° ४२ ' के शिरो - बिन्दुओं के बीच स्थित है। इसका आकार एक ऐसी अनियमित पट्टी के समीप हैं, जो नर्मदा के दक्षिणी तटों की ओर फैली हुई है। यहां विभिन्न धर्मों व सम्प्रदायों से सम्बन्धित मूर्ति शिल्प बिखरा पड़ा है जिनमें से अनेक पुरावशेष
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