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जैन दर्शन का कर्म सिद्धान्त एवं उसके समान्तर भारतीय दर्शन में प्रचलित अन्य सिद्धान्त
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अतिरिक्त वे लोग भी इसके अन्तर्गत आ जाते हैं जो एकान्तरूप से अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अभिनिवेश, मिथ्याग्रह आदि से युक्त होकर अहर्निश श्रम करने की प्रेरणा देते हैं। सूत्रकृतांग में ऐसे एकान्त क्रियावादियों को मिथ्यात्वी माना गया है। प्रकृतिवाद
सांख्य दर्शन के अनुसार सत्व, रज, तम इस त्रिगुणात्मक प्रकृति से ही समग्र जगत् का विकास और ह्रास होता है। समस्त प्राणियों के सुख-दु:ख, सम्पन्नताविपन्नता, इष्टवियोग, अनिष्ट संयोग का कारण भी वह प्रकृति ही है। यह वाद भी कर्म सिद्धान्त के प्रतिकूल है क्योंकि प्रकृति अपने आप में जड़ है, वह अपने हिताहित को नहीं समझती। वह अच्छा या बुरा कार्य या आचार के लिए आत्मा के ही अधीन है। अव्याकुंतवाद
आत्मा आदि के सन्दर्भ में मौलूक्य पुत्त द्वारा पूछे जाने पर तथागत बुद्ध ने कहा- आत्मा न तो शाश्वत है नि उच्छिन्न। इसके अतिरिक्त लोक सान्त है अथवा अनन्त, शाश्वत है या अशाश्वत, जीव शरीर भिन्न है या अभिन्न एवं मरने के बाद तथागत होते हैं कि नहीं, ये और इस प्रकार के सभी प्रश्नों का उत्तर न देकर तथागत ने अव्याकृत कह दिया। उन्होंने इन्हें अव्याकृत इसलिए कहा क्योंकि उनके बारे में कहना सार्थक नहीं है, न भिक्षुचर्या और ब्रह्मचर्य के लिए उपयोगी है, न ही यह निर्वाण, निर्वेद, शान्ति एवं परमज्ञान के लिए उपयोगी है।
इन सभी वादों की समीक्षा कर जैन दर्शन पंच कारणवाद की प्रतिष्ठा करता है। उसके अनुसार विश्ववैचित्र्य के पांच महत्त्वपूर्ण कारण हैं -
१. कालवाद २. स्वभाववाद ३. नियतिवाद ४. कर्मवाद और ५. पुरुषार्थवाद।
श्वेताश्वतर उपनिषद्१८ में जिन छ: कारणवादों का उल्लेख हैं उनमें कर्मवाद एवं पुरुषार्थवाद को विलकुल स्थान नहीं दिया गया है। उसका कारण है कि उपनिषद् काल से पूर्व तक वैदिक परम्परा के मनीषी विश्ववैचित्र्य का कारण अन्तरात्मा में ढंढ़ने की अपेक्षा बाह्यपदार्थों में ढूंढ़ते थे। सम्भव है कर्मवाद और पुरुषार्थवाद का सीधा सम्बन्ध आत्मा से होने के कारण उनकी दृष्टि में ये दोनों वाद न आये हों।
पश्चातवर्ती जैन दार्शनिक आचार्यों ने इस सिद्धान्त का निरूपण किया है कि किसी कार्य की उत्पत्ति केवल एक ही कारण पर निर्भर नहीं है, वह आश्रित है - पाँच कारणों के समवाय (कारणसाकल्य) पर।
काल, स्वभाव, नियति, कर्म और पुरुषार्थ ये पाँच कारण हैं जिन्हें जैन दार्शनिकों ने पंचकारण समवाय कहा है। ये पाँचों सापेक्ष हैं। इनमें से किसी भी एक को कारण
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