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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४
आवश्यक है जिससे वह दूसरे दिन नई स्फूर्ति, नया जोश और उमंग के साथ कार्य कर सके, उसी प्रकार पूरा जीवन कार्य करने के बाद मृत्यु के उपरान्त वह नया जीवन तथा नई चेतना लेकर पुन: जन्म लेता है। जीवन में जो कुछ सुख-दु:ख, हर्ष-विषाद आदि के मृदु तथा कटु अनुभव किये हैं उनका मृत्यु के बाद पाचन होता है तथा उनसे प्राप्त अनुभूतियों को लेकर वह फिर जन्म ग्रहण करता है जिससे उसका अगला जीवन अधिक सुखद एवं विकसित होता है। इसी क्रम से बार-बार जन्म लेकर उनके प्राप्त अनुभवों के आधार पर उसकी निरन्तर प्रगति होती जाती है तथा अन्त में वह मोक्ष को प्राप्त होता है।
यहाँ पर हम जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ के सन्दर्भ में मृत्यु पर विचार करेंगे।
भारतीय मनीषियों ने जीवनकला के साथ - साथ मृत्युकला पर भी गहरा चिन्तन किया है और इस रहस्य को उजागर किया है कि मृत्यु के समय हम किस प्रकार हँसते हुए शान्ति और कृतकृत्यता का अनुभव करते हुए प्राणों को छोड़ सकते हैं। देहत्याग के समय हमें कोई मानसिक उद्वेग या चिन्ता न हो। जिस प्रकार हम अपने पुराने - फटे वस्त्रों को उतारकर नवीन वस्त्र धारण करते हैं, उसी प्रकार की अनुभूति देहत्याग के समय होनी चाहिए। योगवासिष्ठ अनेक उदाहरणों द्वारा इस अनुभूति को स्पष्ट करता है - जैसे पक्षी एक वृक्ष को छोड़कर दूसरे वृक्ष पर जा बैठता है वैसे ही आशा के सैकड़ों फाँसों से बँधा हुआ और अनेक वासनाओं के भावों से युक्त जीव (आत्मा) भी एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर में चला जाता है। अपने भीतर के वासनाओं की भावना के अनुसार आकार धारण के कारण समय-समय पर जीव अपने विचार के अनुसार अपना आकार बदलता रहता है। जीवन का यह दृष्टिकोण मृत्यु की कला है और इस कला को सिखाने का सबसे अधिक प्रयत्न 'जैन मनीषियों' ने किया है, जिसे समाधिमरण, सल्लेखना, संथारा आदि नामों से जाना जाता है।
जैन परंपरा में मृत्यु को एक प्रक्रिया के अन्तर्गत अपनाया जाता है। यह प्रक्रिया कठिन होती है। इसका नाम समाधिमरण है। इसे ज्ञानीजन ही अपना सकते हैं। इस प्रक्रिया द्वारा मृत्यु का स्वागत या आलिंगन करने के लिए स्वयं धीरे-धीरे इसकी ओर (मृत्यु की ओर) बढ़ते हैं।
- जैन परम्परा के सामान्य आचार-नियमों में समाधिमरण एक महत्वपूर्ण अवधारणा है। इस परम्परा में श्रमण साधकों एवं गृहस्थ उपासकों दोनों के लिए समाधिमरण ग्रहण करने के निर्देश मिलते हैं। जैन आगमों में समाधिमरण ग्रहण करने के अनेक सन्दर्भ हैं। अन्तकृद्दशांग एवं अनुत्तरोपपातिक में ऐसे श्रमण साधकों
और उपासकदशांग में ऐसे गृहस्थों की जीवन गाथाएँ मिलती हैं, जिन्होंने जीवन के अंतिम समय में समाधिमरण किया था।
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