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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६॥
जनवरी-जून २००४
जैन दर्शन एवं योगवासिष्ठ में मृत्यु विचार
___ मनोज कुमार तिवारी*
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मृत्यु शब्द से हम सभी परिचित हैं। इस शब्द को सुनते ही व्यक्ति सहम जाता है और उसमें एक अनजान भय फैल जाता है। मृत्यु जीवन को समाप्त करने वाली “घटना है। मृत्यु और जीवन के सम्बन्ध को लेकर व्यक्तियों, सम्प्रदायों आदि में मतभेद है। जो लोग शरीर को ही सब कुछ मानते हैं, उनका स्पष्ट मत है कि मृत्यु के द्वारा जब शरीर का सर्वथा नाश हो गया तो शेष रहा क्या? दूसरे लोग जो शरीर को केवल आत्मा का निवास स्थान मानते हैं, उनका मत है कि मृत्यु केवल शरीर के नाश होने का नाम है। शरीर के नष्ट हो जाने पर भी आत्मा का नाश नहीं होता है। आत्मा एक शरीर के नष्ट हो जाने पर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है। भारतीय दार्शनिक सम्प्रदायों में केवल चार्वाक को छोड़कर प्राय: सभी का मत है कि आत्मा एक शरीर के नष्ट होने पर दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाती है। पाश्चात्य देशों में अधिकांश लोगों के प्रकृतिवादी होने के कारण मृत्यु का अर्थ जीवन का सर्वनाश ही समझा जाता है। ‘सायकिकल रिसर्च' नामक विज्ञान की एक शाखा का काम इस प्रश्न का भलीभाँति अध्ययन करना ही है। इस क्षेत्र में काम करने वाले अनेक विद्वानों को तो पूरा विश्वास हो गया है कि मृत्यु जीवन का अन्त नहीं कर देती; मृत्यु के पश्चात् भी जीवन है
और मृत जीवों से हमारा वार्तालाप का सम्बन्ध हो सकता है। कभी-कभी मृतजनों (प्रेतों) का दर्शन भी हो सकता है और होता है। बहुत सी घटनायें कभी-कभी ऐसी भी होती रहती हैं जिनमें मृत्यु के पश्चात् प्राप्त किये हुए जीवन में मृत्यु के पूर्व के जीवन के अनुभव की याद बनी रहती है। आजकल इस प्रकार की अनेक पुस्तकें आ गयी हैं जिनमें मृत्यु के पश्चात् जीवन और पूर्वजन्म सिद्ध करने के लिए अनेक वैज्ञानिक और ऐतिहासिक प्रमाण दिए गए हैं।
सृष्टि का अटल नियम है कि जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु निश्चित हैजातस्य हि ध्रुवो मृत्युः, जिसका निर्माण हुआ उसका विनाश अवश्य होगा। सृजन एवं विध्वंस की प्रक्रिया ही विकास की प्रक्रिया है। बिना विध्वंस के नया सृजन नहीं हो सकता। जीवन में मृत्यु अनिवार्य ही नहीं आवश्यक भी है क्योंकि इसी के साथ चेतना के विकास की प्रक्रिया जुड़ी हुई है। जिस प्रकार दिनभर के श्रम के बाद नींद 'शोध छात्र, दर्शन एवं धर्म विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी।
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