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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४
मान लेने से कार्य की निष्पत्ति नहीं हो सकती। सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मति-तर्कप्रकरण'९ एवं हरिभद्र ने शास्त्रवार्तासमुच्चयरे में पंचकारणवाद को व्याख्यायित किया है। किन्तु इनमें से कोई भी एकान्तरूप से सृष्टिवैचित्र्य का कारण नहीं है।
अत: जैन दर्शन में कर्म को ही समस्त जगत् वैचित्र्य का कारण माना गया है। कारणता सम्बन्धी उपर्युक्त विविध सिद्धान्तों की जैनों द्वारा समीक्षा की गयी है।
कालवाद को व्यक्ति की सुख-दुःखात्मक अनुभूति का कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि यदि काल ही एक मात्र कारण है तो कोई व्यक्ति सुखी और कोई दुःखी क्यों होता है। फिर अचेतन काल भारी सुख-दुःखात्मक अनुभूतियों का या चेतन अवस्थाओं का कारण कैसे हो सकता है।
नियतिवाद को यदि स्वीकारा जाय तो जीवन में पुरुषार्थ का कोई मूल्य नहीं रह जाता। यदि ईश्वर को इन सुख-दुःखात्मक प्रवृत्तियों का कारण माना जाय तो शुभाशुभ प्रवृत्तियों के लिए प्रशंसा या निन्दा का कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। किसी को सुख किसी को दुःख देने वाला ईश्वर न्यायी भी नहीं कहा जा सकेगा। महाभूतवाद मानने पर देहात्मवाद या उच्छेदवाद को मानना पड़ेगा। लेकिन आत्मा के स्थायी तत्त्व के अभाव में कर्मफल व्यतिक्रम और नैतिक प्रगति की धारणा का कोई अर्थ नहीं रहेगा। कृतप्रणाश एवं अकृतभोग की समस्या भी उत्पन्न होगी। यदृच्छावाद को स्वीकार करने पर सब कुछ संयोग पर निर्भर होता है, लेकिन संयोग या अहेतुकता भी नैतिक जीवन की दृष्टि से समीचीन नहीं है। जैनों की समन्वय दृष्टि :
अत: इन सभी सिद्धान्तों की अक्षमताओं को दृष्टिगत रखते हुए जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त की स्थापना की गयी। जैन विचारधारा संसार की प्रक्रिया को अनादि मानते हुए जीवों के सुख-दु:ख एवं उनकी वैयक्तिक विभिन्नताओं का कारण कर्म को मानती है फिर भी जैन कर्म सिद्धान्त उपर्युक्त वादों में से कुछ को समुचित स्थान अपने कर्म सिद्धान्त में देता है। कालवाद का स्थान इस रूप में है कि कर्म का फलदान उसके विपाक काल पर ही निर्भर करता है। इसी प्रकार प्रत्येक कर्म का एक नियत स्वभाव होता है और वह अपने स्वभाव के अनुसार ही फल प्रदान करता है। पूर्व अर्जित कर्म ही व्यक्ति की नियति बन जाते हैं। इस प्रकार जैन कर्म सिद्धान्त में नियति का तत्त्व भी समाविष्ट है। कर्म के निमित्त कारण के रूप में परमाणुओं को स्थान देकर कर्म सिद्धान्त भौतिक तत्त्व के मूल्य को भी स्वीकार करता है। जैन कर्म सिद्धान्त में व्यक्ति की चयनात्मक स्वतन्त्रता स्वीकार कर यदृच्छावादी धारणा को भी स्थान दिया गया है और कहा गया है कि व्यक्ति स्वयं ही अपना निर्माता, नियन्ता और स्वामी है और इस रूप में वह स्वयं ही ईश्वर भी है। अत: जैन कर्म सिद्धान्त उस समय प्रचलित अनेक एकांगी
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