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जैन दर्शन का कर्म - सिद्धान्त एवं उसके समान्तर भारतीय दर्शन में प्रचलित अन्य सिद्धान्त डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय *
श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ जनवरी - जून २००४
वैज्ञानिक जगत् में तथ्यों एवं घटनाओं की व्याख्या के लिए जो स्थान कार्यकारण सिद्धान्त का है, आचार दर्शन के क्षेत्र में वही स्थान कर्म - सिद्धान्त का है। भारतीय चिन्तकों ने कर्म सिद्धान्त की स्थापना के द्वारा न केवल नैतिक क्रियाओं के फल की अनिवार्यता प्रकट की अपितु उनके पूर्ववर्ती कारणों एवं अनुवर्ती परिणामों की व्याख्या भी की, साथ ही सृष्टि के वैषम्य का सुन्दरतम समाधान भी किया। विश्व के इस विशाल रंगमंच पर चतुर्दिक दृष्टिपात करने पर विषमता ही दिखाई देती है। कोई सुखी है तो कोई दुःखी, कोई ऊंच है तो कोई नीच, कोई छोटा है तो कोई बड़ा, कोई बलवान है तो कोई निर्बल। यदि हम इन विषमताओं के मूलकारणों की छानबीन करें तो कर्म के अतिरिक्त अन्य कोई तथ्य जागतिक वैविध्य का कारण नहीं जान पड़ता।
अन्यान्य भारतीय दर्शनों की तरह जैन दर्शन भी इस जगत् के वैचित्र्य की व्याख्या कर्म-सिद्धान्त के आधार पर करता है। आचारांग में स्पष्ट कहा गया है'कम्मुणा उवाधि जायति' अर्थात् कर्म से उपाधि ( दुःख) का जन्म होता है। इसके अतिरिक्त 'कम्मं च जाइ मरणस्स मूलं' आदि उल्लेख यही दर्शाते हैं कि कर्म ही सुखदुःख, जन्म-मरण का मूल है। जैन दर्शन में जीवों की विभिन्न उपाधियों और सुखदुःखादि के वैषम्य के १४ कारणद्वार बताये गये हैं - १. गति २. इन्द्रिय ३. काय ४. योग ५. वेद ६. कषाय ७. ज्ञान ८. संयम ९. दर्शन १०. लेश्या ११. भव्य १२. सम्यक्त्व १३. संज्ञी और १४. आहार | इन चौदह बातों को लेकर जीवों में जो विभिन्नतायें होती हैं उनका मूल कारण कर्म ही है ।
कर्म - सिद्धान्त की प्रथम मान्यता यह हैं कि प्रत्येक क्रिया उसके परिणाम से जुड़ी है। दूसरी यह कि उस परिणाम की अनुभूति वही व्यक्ति करता है जिसने पूर्ववर्ती क्रिया की है अर्थात् पूर्ववर्ती क्रियाओं का कर्ता ही उसके परिणाम का भोक्ता है । तीसरे, कर्म सिद्धान्त यह भी मानकर चलता है कि कर्म और उसके विपाक
* सहायक निदेशक, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी।
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