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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६
जनवरी-जून २००४
श्रमण आचार व्यवस्था-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
नीतू द्विवेदी
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सांसारिक माया-मोह-तृष्णा का परित्याग कर वास्तविक सत्य की गवेषणा में मोक्ष हेत प्राचीन भारतीय मनीषियों ने दो मार्गों का अनुसरण किया, प्रथम प्रवृत्तिमार्ग एवं द्वितीय निवृत्तिमार्ग। दोनों का लक्ष्य एक ही था, जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति करना। प्रवृत्तिमार्गी जहां सांसारिक कर्मों में प्रवृत्ति होते हुए भी उनमें कर्म-फलों से विरक्त होकर अर्थात, सांसारिक बन्धनों से विरक्त होकर स्वयं को परमात्मा अथवा सत्य समागम के योग्य बनाना उनका लक्ष्य था, वहीं निवृत्तमार्गी सांसारिक कार्य एवं बन्धनों से पूर्णत: निवृत्त थे, वे गृह-मोह से विरक्त हो ज्ञान की खोज में एकाकी या स्वतुल्य अन्य समूह अथवा संघों में सत्संगी रूप में भ्रमण एवं रमण करते थे। ये निवृत्तमार्गी नामान्तर से मुनि, यति, भिक्षु, तपस्वी, परिव्राजक, संन्यासी अथवा श्रमण कहे गये। इनके आचार - विचार का उल्लेख वैदिक संहिताओं में भी प्राप्त होता है। जिससे ज्ञात होता है कि प्राक् - ऋग्वैदिक काल से ही आर्य किन्तु अवैदिक श्रमण परम्परा विद्यमान थी।अ जिसके समान्तर भारतेरानी भाषा परिवार में भी इसके सूत्र मिलते हैं।
ऋग्वेद के दशम् मंडल के केशी सूक्त में मुनि का उल्लेख प्राप्त होता हैमुनयो वातरशना: पिशंङ्गा वसते मला। वातस्यानु ध्राजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत।। उन्मदिता मौनेयेन वातां आ तस्थिमा वयम्। शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि-पश्यथ।।श्न
यहाँ उल्लिखित 'वातरशना' शब्द जिसका अर्थ 'दिगम्बर' ही है। वायु जिसकी मेखला है अथवा दिशाएं जिनका वस्त्र है। शब्द के भाव एक ही हैं । वैदिक परम्परा में आध्यात्म के प्रतीक 'ऋषि' कहलाते थे। जिनका उल्लेख ऋग्वेद में अनेकश: हुआ है। श्रमण परम्परा में यही 'मुनि' कहलाते थे, जिनका नामोल्लेख ऋग्वेद में वातरशनामुनि के रूप में हुआ है। ये वातरशनामुनि वैदिक ऋषियों से कुछ भिन्न थे। वैदिक ऋषि ऋषि' होने के साथ - साथ गृहस्थ होते थे, यज्ञादि कर्मकाण्डों में आस्थावान रहते थे तथा यजमानों * शोध छात्रा, प्राचीन भारतीय इतिहास संस्कृति एवं पुरातत्व विभाग, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर (उ० प्र०)
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