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जैन दर्शन में " अनेकान्तवाद"
भी सात प्रकार के होते हैं। प्रश्नों के सात प्रकार होने के कारण उत्तर रूप कथन भी सात प्रकार का होता है। अतः द्रव्य इन उपर्युक्त कारणों से सात भेद वाला होता है। सप्तभंगी अथवा स्याद्वाद में नय प्रकरण भी महत्वपूर्ण है। जैन आगमों में मुख्य रूप से द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन चार दृष्टियों से तथा द्रव्यार्थिक एवं पर्यापार्थिक नयों के द्वारा विचार करने की पद्धति अपनायी गयी है। इसके अलावा व्यवहार और निश्चय इन दो नयों से भी विचार किया जाता है। इन दो नयों के माध्यम से भी अनेकान्त की अभिव्यक्ति की गयी है। अब प्रश्न यह होता है परमार्थ तो है ही फिर व्यवहार की क्या आवश्यकता ? इसका समाधान है कि जिस प्रकार अनार्य व्यक्ति अनार्य भाषा के बिना समझाया नहीं जा सकता, उसी तरह व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है। परमार्थ का उपदेश देने के लिये व्यवहार नय का आश्रय आवश्यक है, ११ क्योंकि निश्चय नय वस्तु के आन्तरिक स्वरूप में ही विचार करता है । किन्तु व्यवहार नय उसके बाह्य स्वरूप की ध्यान में रखते हुए वस्तु का विचार करता है।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि जैन दर्शन में दृष्टि भेदों के नय नाम दिया गया है। यह शैली अन्य दर्शनों में भी अपनायी गयी है, जैसे अनेकान्त दर्शन में सत् के स्वरूप को समझाने के लिये इन दो नयों का प्रयोग हुआ वैसे वेदान्त दर्शन में भी इन शैलीयों का खुलकर प्रयोग हुआ। वेदान्त की व्यवहारिक और परमार्थिक दृष्टि, निश्चय एवं व्यवहार नाम का रूपान्तर है। एकान्त दर्शनों में सर्वप्रथम बौद्ध दर्शन में ये दो दृष्टियाँ दिखायी देती हैं। उनका नाम है - नीतार्थ सूत्र और नेपार्थ सूत्र २ । नयों का एक प्रकार द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नय भी है इसका कारण है निश्चय नय द्रव्याश्रित है और व्यवहार नय पर्यायाश्रित है। द्रव्यार्थिक नय द्रव्य विषयक है और पर्यायार्थिक नय पर्यायविषयक । द्रव्यार्थिक नय के ३ प्रकार तथा पर्यायर्थिक नय के चार प्रकार हैं। इस प्रकार इसकी संख्या सात हो जाती है । इन भंगों में से प्रथम चार अस्ति, नास्ति एवं अव्यक्त भंग मौलिक हैं उन्हीं के आधार पर शेष भंगों की योजना की गयी है।
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स्याद्वाद के भंगों में सभी विरोधी धर्म युगलों को लेकर सात भंगों की (न कम, न अधिक की) जैन दार्शनिकों द्वारा की गयी योजना का कारण यह है कि भगवती सूत्र में त्रिदेशी और उससे अधिक प्रदेशी स्कन्धों के भंगों की संख्या मूल सात भंग से ही है जो जैन दार्शनिकों ने अपने सप्तभंगी के विवेचन में स्वीकृत किये हैं। जो अधिक भंग संख्या बतायी गयी है वह मौलिक भंगों के भेद के कारण नहीं किन्तु एक वचन बहुवचन के भेद की विविक्षा के कारण ही है। यदि वचन भेद कृत संख्या वृद्धि को निकाल दिया जाये तो मौलिक भंग सात ही रह जाते हैं। अतएव वर्तमान में प्रचलित स्याद्वाद सप्तभंगी आगमों में कहे गये सप्त भंगों के ही रूप हैं । सकलादेश और विकलादेश की कल्पना भी आगमिक सप्तभंगों में विद्यमान है । आगमों के अनुसार प्रथम तीन भंग संकलादेशी भंग हैं और शेष विकलादेशी हैं । १३
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