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श्रमण आचार व्यवस्था-ऐतिहासिक पृष्ठभूमि : ७१
जैन और बौद्ध श्रमण परम्परा का सम्बन्ध उस भारतीय संस्कृति से है जिसका उदय सामान्यतः वैदिक प्रवृत्तिमार्ग, यज्ञ, बलि, आदि कर्मकाण्डों के विरुद्ध प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप आरण्यक और उपनिषदों के उदय से मान्य है, कारण कि, यज्ञों की आलोचना सर्वप्रथम उपनिषदों में ही की गयी। जिसके अनुसार यज्ञ रूपी नौकाएं अदृढ़ होने के कारण आत्मा के विकास में सक्षम नहीं हैं। यज्ञ आदि कर्म-काण्डों को नयी व्याख्या का रूप देकर उन्हें परम्परा की आध्यात्मिक दृष्टि के अनुरूप बनाने का कार्य औपनिषदिकऋषियों ने किया। . उपनिषदों के पश्चात् कठोर तपश्चर्या और वैराग्य को ही जीवन का परम् लक्ष्य मानने वाले श्रमण सम्प्रदायों की गिनती में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गयी। ऐसा माना जाता है कि इन सभी सम्प्रदायों के साधु-संत गृह त्यागकर वैराग्यपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे तथा सभी हिंसायुक्त यज्ञों से इतर मानव के समक्ष ऐसे आचार-विचार प्रस्तुत करने की अपेक्षा करते थे जिससे न सिर्फ मानव का कल्याण हो अपितु सम्पूर्ण प्राणियों के रक्षार्थ जो हितकर एवं श्रेयस्कर हो।
बौद्ध साहित्य, मेगास्थनीज की इण्डिका, अशोक के अभिलेखों में भी श्रमण परम्परा का उल्लेख मिलता है और वहाँ ब्राह्मण-श्रमण संयुक्त पद प्रयुक्त है जिससे प्रकट होता है कि श्रमण परम्परा एक प्रबल आध्यात्मिक परम्परा थी और ब्राह्मण संस्कृति एवं परम्परा से कुछ भिन्न होते हुए भी उससे कुछ बिन्दुओं में समान थी।
ब्राह्मणों तथा श्रमणों के व्रतों की समानता के आधार पर यह माना गया कि वस्तुत: बौद्ध एवं जैन दोनों धर्म ब्राह्मण धर्म के संन्यासाश्रम से ही निष्पन्न हैं तथा श्रमण परम्परा से चतुराश्रम परम्परा प्राचीन है। 'हर्मन जैकोबी' तथा 'काणे' ११ प्रभृति विद्वान् इस मान्यता से साम्य रखते हैं कि, बौद्ध एवं जैन श्रमण दोनों ही सम्प्रदाय वैदिक धर्म के ऋणी हैं। धर्म-सूत्रों में वर्णित पंचव्रत-अहिंसा, सुनृत, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह क्रमान्त से वही पंच महाव्रत हैं जिनका अनुसरण जैन श्रमणों को करना पड़ता है तथा बौद्धों को भी पंचशीलों का पालन इन्ही के अन्तर्गत करना पड़ता है। इतना ही नही हिन्दू धर्म में अवतारवाद की कल्पना के अन्तर्गत प्रथम जैन तीर्थंकर ऋषभदेव को भगवान् विष्णु के अवतार नाभि पुत्र ऋषभ के रूप में माना गया है जिनकी उत्पत्ति स्वयं उपशमशील निवृत्त परायण महामुनियों को भक्ति, ज्ञान और वैराग्य रूप परमहंसोचित धर्मों की शिक्षा देने के निमित्त हुई।१२
श्रमण परम्परा में शुद्ध आचार और विचार का बड़ा ही महत्व है। आचार बिना विचार की प्रेरणा संभव नहीं है और विचार को व्यवहारिक रूप देने के लिए आचार की अनिवार्यता होती है। भारतीय दर्शन में आचार और विचार दोनों को समान महत्व
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