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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ / जनवरी - जून २००४
से धन-सम्पत्तिका दान भी स्वीकार करते थे। जबकि, वातरशना मुनि इन सभी क्रियाओं से विरक्त समस्त गृह-द्वार, स्त्री-पुरुष, धन-सम्पदा आदि के साथ-साथ वस्त्रों का भी परित्याग कर भिक्षावृत्ति में संलग्न रहते थे तथा शरीर के संस्कार में अस्नान, अदन्तधावन द्वारा मल धारण किया करते थे। ये मौन वृत्ति का पालन करते थे और देव ध्यान की अपेक्षा आत्मध्यान में रत् रहते थे।
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ऋग्वेद में उल्लिखत केशी का साम्य भागवतपुराण के ऋषभ और वातरशना श्रमण ऋषि तथा आदि तीर्थंकर केसरिया नाथ ऋषभदेव से प्रतीत होता है । ३ एक ही स्थान पर ऋग्वेद में दोनों का साथ साथ उल्लेख भी प्राप्त होता है। अथर्ववेद
१५ वें काण्ड में 'व्रात्यों' का उल्लेख प्राप्त होता है । " यहाँ यद्यपि उनका अत्यन्त रहस्यात्मक व्यक्तित्व चित्रित है तथापि उससे प्रतीत होता है कि वे सामान्यजनों के मध्य विचरने वाले यायावर थे, राजा के घर में भी इनका स्वागत होता था। अग्निपूजकों का भी इनसे सम्पर्क था तथा 'व्रात्यों' की उपस्थिति में उनकी अनुमति पर ही उनके यहाँ अग्नि प्रज्जवलित की जा सकती थी । वैदिक साहित्य में भी अन्यत्र व्रात्यों का उल्लेख है।
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'व्रात्य' के स्वरूप के विषय में विद्वानों में पर्याप्त विवाद रहा है और भिन्नभिन्न मतों द्वारा इन्हे यायावर, संन्यासी, देवता विशेष के पूजक, आर्य, अनार्य आदि कहा गया है।"
सामान्यतः राथ महोदय का मत स्वीकार किया जा सकता है कि अर्थवेदीय ब्रात्य भ्रमणशील परिव्राजक अथवा पवित्र यायावर के रूप में उल्लिखित हैं जो कहीं तो अतिमानवीय शक्ति के रूप में सम्मानित हैं और कहीं भोजन और आवास की तलाश में इतस्ततः घूमते वर्णित हैं।" पंचविश ब्राह्मण के सन्दर्भ से भी व्रात्यों का नाग्न्य भाव स्पष्ट है। इनकी घुमक्कड़ वुत्ति और भोजन आदि की आवश्यकता को देखते हुए उन्हें परिव्राजक के रूप में समीकृत किया जा सकता है।
मन्त्र एवं ब्राह्मण साहित्य के मुनि, यति, व्रात्य एवं वातरशना ऋषि सम्बन्धी उपरोक्त उद्धरणों से स्पष्टतः विदित है कि पूर्व वैदिक काल से ही प्रवृत्तिमार्गी यज्ञीय परम्परा से परे निवृत्तमार्गी आर्दश वाले मनीषियों का अस्तित्व विद्यमान था। तथा जैन-बौद्ध श्रमण परिव्राजक परम्परा जो बुद्ध तथा महावीर के काल में और पल्लवित एवं पुष्पित हुई, का सूत्र किसी न किसी रूप में उस प्राचीन काल तक पहुंचता है। इनकी उत्पत्ति के प्रमाण वैदिक साहित्य में विरल अवश्य हैं परन्तु इनकी जीवन्त और विकासशील परम्परा संशक्ति नहीं है। संभाव्य है कि, वैदिक संस्कृति में उपनिषद् चिन्तन प्राचीन मुनि - श्रमणों के प्रभाव में ही विकसित हुआ होगा ।
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