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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ / जनवरी - जून २००४
अत: हम कह सकते हैं कि अस्ति-नस्ति, भाव- अभाव, शाश्वत - उच्छेद, नित्य परिणाम का समन्वय करना अनेकान्तवाद की ही देन है। जैन दर्शन का तत्व निर्णायक दृष्टिकोण है । इस दृष्टिकोण की विशेषता यही है कि इसमें विरोधी धर्म भी समाहित हैं और इन धर्मों की अभिव्यक्ति स्यात् से ही संभव है। हालाँकि आधुनिक दार्शनिक और वर्तमान वेदान्ती भी अनेकान्तवाद की आलोचना करते हैं किन्तु हम अगर व्यापक दृष्टिकोण डालें तो समाज और राष्ट्र में व्याप्त हिंसा, असन्तोष, तनाव, भेद-भाव, आपसी वैमनस्य आदि का समाधान काफी हद तक अनेकान्तवाद से ही हो सकता है । अनेकान्तवाद को अपना कर, उसे चित्त में आत्मसात् करके ही हम संसार में शान्ति स्थापित कर सकते हैं। वास्तव में अगर देखा जाए तो अनेकान्तवाद का प्रतिपादन जैन दर्शन की उदारता का परिचायक है । १४ किसी एक वाद का शरण ग्रहण करना संकीर्णता है, किन्तु अनेकान्तवाद से विरोधी धर्म का समन्वय करना जैन दर्शन की विशाल दृष्टि को दर्शाता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ :
१ - २. सप्तभंगी तरंगिणी, सम्पा० विमलदास, श्रीमद्राजचन्द्र आश्रम, अगास १९७७ ई०; पृ० ३०।
३. न्यायवार्त्तिक, वात्स्यायन, पृ० १७०।
४.
५.
भिखारी राम यादव, स्याद्वाद और सप्तभंगी नय, वाराणसी १९८९, पृ० ३५। अनोकन्तवाद - एक समीक्षात्मक अध्ययन, डा० राजेन्द्र लाल डोसी, सं०, डा० गयाचरण त्रिपाठी, इलाहाबाद १९८२ ई०, पृ० ६२ ।
श्रयणोपासक, संपा० - जुगराज सेठिया, वर्ष १९६९, अंक १०, पृष्ठ ६०२। सन्मति तर्क, आचार्य सिद्धसेन, गुजरात विद्यापीठ, अहमदाबाद, गाथा २७, पृ० ६३८।
८. स्वयंभू स्तोत्र, आचार्य समन्तभद्र, सं० धर्मचन्द्र शास्त्री व कुमारी प्रभा पाटनी, प्रकाशक भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत् परिषद १९९५ ।
६.
७.
९.
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अनेकान्तात्मकार्थ कथन स्याद्वाद:, न्यायकुमुदचंद्र लघीयस्त्रयटीका, ि
जैन ग्रन्थमाला, कलकत्ता १९३९, श्लोक ६२।
१०. भिखारीराम यादव, पूर्वोक्त, पृ० ७९ ।
११. समयसार, कुन्दकन्दाचार्य, गाथा ११
१२. अंगुत्तरनिकाय, प्रकाशक - महाबोधि सभा कलकत्ता, १९६३।
१३. युक्तानुशासन, अनु० - जुगलकिशोर मुख्तार, वीर सेवा मंन्दिर, सरसावा १९५१, श्लोक ४७, पृ० १०८, १-११५/
१४. षड्दर्शनसमुच्चयटीका, पृ० २२२|
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