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जैन दर्शन में “अनेकान्तवाद' : ६५
अनैकान्तिकः३।। इस प्रकार अनेकान्त शब्द का आशय है अनेक अन्तों वाला (अनेक+अन्त)। अनेक का अर्थ है एक से अधिक और अन्त का अर्थ है धर्म। इस प्रकार अनेकान्त का अर्थ है एक से अधिक यानि अनन्तधर्मात्मक होना “अनन्तधर्मात्मकं वस्तु”। वस्तु अनन्तधर्मात्मक है किन्तु उन सबका एकसाथ कथन संभव नही है। क्योंकि शब्दों की शक्ति सीमित है। वे एक समय में एक ही धर्म को कह सकते हैं। अत: अनन्त धर्मों में एक विवक्षित धर्म मुख्य होता है, जिसका कि प्रतिपादन किया जाता है, बाकी अन्य सभी धर्म गौण होते हैं क्योंकि उनके सम्बन्ध में अभी कुछ नही कहा जा रहा है। यह मुख्यता और गौणता वस्तु में विद्यमान धर्मों की अपेक्षा नहीं, किन्तु वक्ता की इच्छानुसार होता है। वस्तु में सभी धर्म प्रति समय अपनी पूरी क्षमता से विद्यमान रहते हैं। उनमें मुख्य-गौण का कोई प्रश्न नहीं है क्योंकि वस्तु में तो उन पारस्परिक विरोधी धर्मों को अपने में धारण करने की शक्ति है। वे तो उस वस्तु में अनादि काल से विद्यमान हैं और अनन्त काल तक रहेंगे।
जैन दर्शन में अनेक प्रमाणों से यह सिद्ध किया गया है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक है अर्थात संसार की सभी वस्तुएं अनन्त धर्म युक्त होती हैं। उनमें अनन्त धर्म, अनन्त पर्यायें अपेक्षा भेद से सदैव विद्यमान रहती हैं। हमें यहाँ स्मरण रखना चाहिए कि वस्तु की अनेकान्तात्मकता और अनन्तधर्मता दोनों दो बातें हैं। वस्तु में अनन्तधर्मता उसके अनन्त धर्म होने की ओर और अनेकान्तता उनमें अनन्त धर्मों के होने के साथ-साथ विरोधी धर्म युगलों के होने का संकेत करते हैं। पं० वंशीधर के अनुसार “वस्तु में परस्पर दो विरोधी धर्मों का पाया जाना जिनमें अनेक शब्द का तात्पर्य दो संख्या से है।''६ इस प्रकार अनेकान्तवाद का अर्थ होगा वस्तुओं की अनन्त धर्मता को प्रकट करना। अर्थात विभिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु में अनेक धर्मों को स्वीकार करना या वस्तु की अनेकान्तता को भी सूचित करना। . इस प्रकार जैन दर्शन में दृष्टि से या अपेक्षा से वस्तु अनन्त धर्मात्मक सिद्ध होता है। पदार्थ भाव रूप भी है और अभाव रूप भी और इसी भाव-अभाव, नित्यअनित्य का समन्वय करना ही जैन दर्शन में अनेकान्तवाद कहलाता है। यद्यपि जैन दर्शन अनेकान्तवादी दर्शन कहा जाता है। तथापि यदि उसे सर्वथा अनेकान्तवादी मानें तो यह भी एकान्त हो जायेगा। अत: जैन दर्शन में अनेकान्तवाद में भी अनेकान्त को स्वीकार किया गया है। जैन दर्शन न सर्वथा एकान्तवादी है और न सर्वथा अनेकान्तवादी। वह कथंचित एकान्तवादी और कथंचित अनेकान्तवादी है। इसी का नाम अनेकान्त में अनेकान्त है। आचार्य समंतभद्र ने कहा है
अनेकान्तोऽप्येनेकान्तः प्रमाणनयसाधनः।। अनेकान्त: प्रयावत्तेत देकान्तोऽपित्तानयात्।।
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