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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६
1-जन २००४
जनक
पार्वाभ्युदय काव्य में अभिव्यंजित मेघदूत काव्य
डॉ० मधु अग्रवाल
संस्कृत वाङ्मय की गीति काव्य श्रृंखला में मेघदूत सर्वोत्कृष्ट है, जो कि एक यक्ष द्वारा अपनी प्रियतमा को मेघ को दूत बनाकर सन्देश भेजे जाने के कारण एक संदेश काव्य है। मेघदूत काव्य के श्लोकों को लेकर जिनसेन मुनि ने जैन संदेश काव्य पार्वाभ्युदय की रचना की, जिसमें मेघदूत के श्लोकों को यथावत् उद्धृत करते हुए जैन धर्म के सन्देशपरक काव्य का सफल प्रणयन किया गया है। इन दोनों काव्यों का विवेचन यहां प्रस्तुत है। ____ महाराजा अमोघवर्ष के शासनकाल में ८वीं - ९वीं शताब्दी में आचार्य जिनसेन 'द्वितीय' ने पार्वाभ्युदय नामक सन्देश काव्य की रचना की। उन्होंने कालिदास तथा उनके मेघदूत काव्य का बड़े आदर के साथ स्मरण कर राजा अमोघवर्ष द्वारा पृथ्वी की सदैव रक्षा किये जाने की कामना की और पार्वाभ्युदय के अन्त में उन्होंने कहा है कि 'श्री वीरसेन मुनि के चरणकमलों के भौरे के समान तपो रूप लक्ष्मी से युक्त, श्रेष्ठतर विनयसेन मुनि हुए। विनयसेन मुनिवर की प्रेरणा से जिनसेन मुनि ने मेघदूत नामक खण्डकाव्य से परिवेष्ठित काव्य की रचना की।२ ।।
__ इससे ज्ञात होता है कि जिनसेन के गुरु वीरसेन थे और विनयसेन गुरुभ्राता थे। विनयसेन की प्रेरणा से जिनसेन ने पार्वाभ्युदय की रचना की।
पार्वाभ्युदय में समस्यापूर्ति के काव्यकौशल द्वारा समस्त मेघदूत को ग्रंथित कर लिया गया है। यद्यपि पार्वाभ्युदय एवं मेघद्रत दोनों काव्यों का कथाभाग सर्वथा भिन्न है तथापि मेघदूत की पंक्तियाँ पार्वाभ्युदय में बड़े ही सुन्दर और स्वाभाविक ढंग से बैठ गई हैं। यह काव्य ३६४ मन्दाक्रान्ता वृत्तों में मेघदूत के श्लोकों के चरणों की समस्यापूर्ति के लिए लिखा गया है और जैन सन्देश काव्यों में प्रथम स्थान रखता है। इसके श्लोकों को पढ़कर यह सहज ही ज्ञात हो जाता है कि ९वीं शताब्दी में मेघदूत का पाठ कैसा था। सम्पूर्ण काव्य चार सर्गों में निबद्ध है। यद्यपि उन्हीं छन्दों में भावों को आबद्ध करने का नियन्त्रण कवि पर रहता है, तो भी जिनसेन ने सम्पूर्ण काव्य कौशल का परिचय दिया है और काव्य पाठ में कवि के मनोभावों का ही सरस प्रवाह बना रहता है। मेघदूत के कथा प्रसंग, उसको अतिक्रान्त नहीं कर पाते हैं। यद्यपि * प्राचार्या, रानी भाग्यवती देवी महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बिजनौर (उ०प्र०)
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