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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ जनवरी- जून २००४
जीवन्धरचम्पू में पर्यावरण की अवधारणा
डॉ० कमलेशकुमार जैन*
साहित्यशास्त्र में श्रव्य काव्य के तीन भेद बतलाये गये हैं- गद्यकाव्य, पद्यकाव्य और चम्पूकाव्य । छन्दोहीन गद्य रचना गद्यकाव्य है और छन्दोबद्ध पद्य रचना पद्यकाव्य है' तथा गद्य-पद्य मिश्रण रूप रचना चम्पूकाव्य है। गद्यकाव्य में केवल गद्य का रसास्वादन लिया जा सकता है और पद्यकाव्य में केवल पद्य का, किन्तु चम्पूकाव्य में गद्य और पद्य दोनों का समान रूप से रसास्वादन मिलता है।
चम्पूकाव्य में कवि वर्णन के अनुसार गद्य या पद्य की रचना करने में स्वतन्त्र है और अपने सहृदय पाठकों किं वा श्रोताओं को उभयमुखी रसास्वादन करा सकता है। । अतः गद्य या पद्य काव्य की अपेक्षा चम्पूकाव्य सहदयों के लिये अत्यन्त मनोहारी माना जाता है। चम्पूकाव्य की विशेषता का प्रतिपादन करते हुये महाकवि हरिचन्द्र ने लिखा है कि -
गद्यावलिः पद्यपरम्परा च प्रत्येकमप्यावहति प्रमोदम् ।
हर्षप्रकर्षं तनुते मिलित्वा, द्राग्बाल्यतारुण्यवतीव कान्ता । । ३
अर्थात् गद्यावली और पद्य - परम्परा - ये दोनों पृथक्-पृथक् भी बहुत अधिक आनन्द को पैदा करती हैं, फिर जहाँ दोनों मिल जाती हैं वहाँ तो बात ही कुछ और है । वहाँ वे दोनों शैशव और जवानी के बीच विचरने वाली कान्ता के समान अत्यधिक हर्ष पैदा करने लगती हैं।
संस्कृत साहित्य में अनेक चम्पूकाव्यों की रचना की गई है, जिनमें ईसा की दशवीं शताब्दी (पूर्वार्द्ध) के महाकवि त्रिविक्रमभट्ट का नलचम्पू काव्य अत्यन्त सरस और श्लिष्टपदों की योजना के कारण विद्वानों को अपनी ओर आकृष्ट करने वाला है। इसमें नल और दमयन्ती की प्रणय कथा का मनोहारी चित्रण किया गया है। इन्हीं कवि की एक अन्य रचना मदालसाचम्पू भी है जो यमुना- त्रिविक्रम के नाम से भी जानी जाती है। इसमें कुवलयाश्च और मदालसा की प्रेमकथा गुम्फित है।
जैन चम्पूकाव्यों में महाकवि सोमदेवसूरि (९५९ ई० ) का यशस्तिलकचम्पू, महाकवि हरिचन्द्र (ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी) का जीवन्थरचम्पू और महाकवि अर्हद्दास * रीडर एवं अध्यक्ष, जैन-बौद्धदर्शन विभाग, का०हि०वि०वि०, वाराणसी।
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