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जीवन्धरचम्पू में पर्यावरण की अवधारणा : ६१
आयु चपल मेघ के तुल्य है। इस प्रकार इस संसार की सन्तति में कुछ भी सुख नहीं है, फिर भी उसमें मूढ़ हुआ पुरुष अपना हित नहीं करता, अपितु इसके विपरीत मोह बढ़ाने वाला व्यर्थ का कार्य ही करता है। नश्वर विषयों द्वारा लुभाया हुआ मनुष्य मोहवश बहुत दुःख देने वाला आरम्भजनित दोषों को नहीं समझता।'९
उपर्युक्त प्रकार से जीवन्यरचम्पू में काम, क्रोध और मोह की त्रिवेणी से उत्पन्न दोषों के निवारण हेतु उपदेशपरक अथवा नीतिपरक वाक्यों का समावेश किया गया है, जो आन्तरिक प्रदूषण के निवारण हेतु रामबाण औषधि के समान हैं। अन्तरङ्ग शद्धि से बाह्य वातावरण शुद्ध होने में सहायता मिलती है, क्योंकि मन की दुष्प्रवृत्ति ही आभ्यान्तर के साथ बाह्य प्रदूषण फैलाती है, जिससे सामान्य जनजीवन प्रभावित होता है। जिसका अन्त:करण शुद्ध है उसका बाह्य पर्यावरण शुद्ध होने में विलम्ब नहीं लगता है।
__ अब दूसरी ओर हम देखते हैं कि हमारे क्रान्तदर्शी कवियों ने काव्य रचना के प्रसङ्ग में प्रकृति के अनन्त गुणों का समवेत स्वर से वर्णन किया है, क्योंकि कवि जानता है कि प्रकृति हमारे जीवन का ठोस आधार है। उसके साथ छेड़छाड़ करना उचित नहीं है। अत: अनेक स्थलों पर ऋतुओं, वनों, सरोवरों और नदी-नालों का यथेष्ट वर्णन जीवन्धरचम्पू में किया गया है। विविध ऋतुओं में पैदा होने वाले पुष्पोंफलों और लता-वृक्षों का बहुतायत में वर्णन करने का तात्पर्य यह है कि सुखी-जीवन जीने के लिये सर्वत्र अनेक वनस्पतियों का होना आवश्यक है। वनों की सघनता के वर्णन का व्यंग्यार्थ यह है कि हम वनों को कटने और काटने से बचायें, क्योंकि इन सघन वनों के कारण ही वर्षा होती है, जिससे प्राणिमात्र के लिये उपयोगी वनस्पतियाँ समृद्ध होती हैं। इसी तरह वनचर जीवों के वर्णन का अर्थ है हमारी वन सम्पदा की वृद्धि और उनके साथ सह-अस्तित्व के विकास की अवधारणा।
सरोवरों एवं नदी-नालों की स्वच्छता के वर्णन का अर्थ है कि हम जल की स्वच्छता बनाये रखें। उनमें विचरण करने वाले जलचरों के वर्णन का अर्थ है कि वे जलचर मानवकृत गन्दगी का सेवन करके जल को स्वच्छ बनाये रखते हैं। अत: उनका संरक्षण आवश्यक है। वे हमारे पर्यावरण को सन्तुलित बनाने में सहायक हैं।
जीवन्यरचम्पू में ऐसे प्रसङ्गों का यथेष्ठ संख्या में विवेचन किया गया है। जबरत्नों के व्यापार में कुशल श्रीदत्त रत्नद्वीप के लिये प्रस्थान करता है तो मार्ग में उसने जो समुद्र देखा वह अत्यन्त रमणीय था। महाकवि हरिचन्द्र उस समुद्र की स्वच्छता एवं समृद्धि का वर्णन करते हुये कहते हैं कि - 'वह समुद्र फूटी हुई सीपों के मोतियों के समूह से व्याप्त था, इसलिये ऐसा जान पड़ता था मानो मकर, मीन और कुलीर
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