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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४
जीवन सुरक्षित रहता है, अत: राजा ही समस्त प्रजाओं के प्राण हैं। राजा के साथ द्रोह करने का विचार मानो समस्त प्रजा के साथ द्रोह करना है। अत: राजद्रोही सबके साथ द्रोह करने वाला है, अत: समस्त पापों का आश्रय है। राजा के साथ विद्रोह करना समस्त वंश के विनाश का कारण है। देखो, राजा (अथवा चन्द्रमा) के साथ विद्रोह करने के कारण ही अन्धकार सब जगह से हटाया जाता है। जिस प्रकार वृक्ष छाया में आये हुये मनुष्यों की रक्षा करने के लिये स्वयं सूर्य के सन्ताप को सहता है, उसी प्रकार राजा निरन्तर जनता के आनन्द के लिये स्वयं रक्षाजन्य क्लेश को सहता है।६ यहाँ महाकवि हरिचन्द्र ने धर्मदत्त मन्त्री के मुख से मानसिक पर्यावरण को शुद्ध करने के उपर्युक्त जिन हेतुओं को उपस्थित किया है वे रेखाङ्कित करने योग्य हैं। .
__क्रोध के कारण व्यक्ति कार्याकार्य विचार करने में असमर्थ हो जाता है और मानसिक सन्तुलन को खो बैठता है, ऐसी स्थिति में मानसिक पर्यावरण को ठीक रखने के लिये गुरु आर्यनन्दी द्वारा जीवन्धर स्वामी को क्रोध न करने की जो शिक्षा दी गई है वह अत्यन्त प्रेरणादायक है। वे कहते हैं कि -
न कार्य: क्रोधोऽयं श्रुतजलधिमग्नैकहदयै - र्न चेपर्था शास्त्रे परिचयकलाचारविधुरा। निजे पाणौ दीपे लसति भुवि कूपे निपततां फलं किं तेन स्यादिति गुरुरथोऽशिक्षयदमुम्।।"
अर्थात् जिनका हृदय शास्त्ररूपी समुद्र में निमग्न है ऐसे मनुष्यों को क्रोध कभी नहीं करना चाहिये, अन्यथा आचरण से रहित उनकी शास्त्राध्ययन की कला व्यर्थ कहलायेगी। अपने हाथों में दीपक के सुशोभित रहने पर भी जो लोग इस पृथिवी पर कुएँ में गिरते हैं उन्हें उस दीपक से क्या लाभ है?
राज्य प्राप्ति के अनन्तर जीवन्धर स्वामी का कुछ समय सुखपूर्वक बीत गया। एक दिन उन्होंने वानर और वानरी के प्रणय-कलह को देखा। वानरी को आनन्दित करने के लिये वानर ने वानरी को एक कटहल का बड़ा पका हुआ फल दिया। किन्तु वनपाल ने उसे धमकाकर छुड़ा लिया। इस दृश्य को देखकर जीवन्धर स्वामी अपने सम्पूर्ण जीवन की समीक्षा करते हुये चिन्तन करते हैं कि - यह वानर काष्ठांगार के समान है। ये फल राज्य के समान है और यह वनपाल मेरे समान है। संसार की असारता पर विचार करते हुये वे आगे कहते हैं कि- “जिस प्रकार नदियों के समूह से समुद्र
और अत्यधिक ईन्धन से अग्नि सन्तुष्ट नहीं होती उसी प्रकार काम के वशीभूत हुआ यह पुरुष कभी भी काम-भोगों से सन्तुष्ट नही होता है। यह राज्य तैल रहित दीपक की लौ के समान है, जीवन चञ्चल है, ये शरीर बिजली के समान क्षण-भङ्गुर है और
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