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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६ / जनवरी- जून २००४
(ईसा की तेरहवीं शताब्दी) का पुरुदेवचम्पूकाव्य अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। यशस्तिलकचम्पू में उज्जयिनी के महाराजा यशोधर की कथा को आधार बनाकर राजनीतिशास्त्र एवं उपासकाध्ययन पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। पुरुदेवचम्पू में वर्तमानकालीन आद्य तीर्थंकर भगवान् ऋषभदेव एवं उनके पुत्र भरत और बाहुबली की कथा गुम्फित है। जीवन्धरचम्पू में जीवन्धर स्वामी का चरित्र चित्रण किया गया है।
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जीवन्धर स्वामी की कथा सर्वप्रथम गुणभद्र के उत्तरपुराण में मिलती है। तदनन्तर वादीभसिंहसूरिकृत गद्यचिन्तामणि एवं क्षत्रचूड़ामणि तथा तिरुतक्कतेवरकृत जीवकचिन्तामणि में मिलती है। अतः उक्त ग्रन्थ ही जीवन्धरचम्पू की कथा के स्रोत हैं।
इन ग्रन्थों में कथाओं अथवा चरित्र चित्रण के माध्यम से भारतीय जनजीवन के लिये आवश्यक विविध पहलुओं पर विचार किया गया है। उसी क्रम में पर्यावरण की सुरक्षा, स्वच्छता और उसकी समृद्धि का व्यापक उल्लेख भी इन ग्रन्थों में पाया जाता है। इसका एक कारण यह है कि प्रकृति और जन जीवन का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। प्रकृति के बिना जनजीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। अतएव यह कहा जाता है कि प्रकृति ही जीवन है ।
जैन साहित्य में यद्यपि सामान्य रूप से तिरसठ शलाकापुरुषों अथवा तत्सदृश विशिष्ट महापुरुषों की कथाओं का संयोजन किया गया है तथापि प्रकृति प्रदत्त तथा मनुष्य के लिये आवश्यक स्वच्छ जल और स्वच्छ वायु के स्रोत नदियों एवं नाना वनस्पतियों से युक्त जंगलों तथा पर्वतों का भी उल्लेख किया गया है।
इन प्रकृतिजन्य संसाधनों का वर्तमान में आवश्यकतानुसार सीमित मात्रा में उपयोग करना और भविष्य के लिये तथा अपनी आगामी अनेक पीढ़ियों के कल्याणार्थ उन संसाधनों का संरक्षण करना आवश्यक है। इस प्रकार मानव जीवन को सुरक्षित रखने के लिये उभयमुखी सावधानी अपेक्षित है। इसके अतिरिक्त उन संसाधनों को प्रदूषण से बचाना परम कर्तव्य है। क्योंकि जल, वायु और वनस्पतियों के प्रदूषित होते ही मानव-जीवन खतरे में पड़ जायेगा। अतः प्रकृति प्रदत्त संसाधनों का संरक्षण ही मानव जीवन का संरक्षण है।
जैन साहित्य में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति को एकेन्द्रिय जीवों की कोटि में परिगणित किया गया है और अहिंसा के माध्यम से प्राणि मात्र की रक्षा की बात कही गई है। यद्यपि सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में इन सबका सामान्य रूप से विवेचन पाया जाता है, किन्तु अहिंसा के क्षेत्र में जितनी सूक्ष्मदृष्टि से जैनधर्म में विचार किया गया है उतना अन्यत्र नहीं और यही कारण है कि पर्यावरण के संरक्षण को जैन साहित्य में जाने-अनजाने पर्याप्त महत्त्व दिया गया है।
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