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जैन-धर्म में प्रतिपादित षडावश्यक की समीक्षा और इसकी प्रासंगिकता : ४५
प्रवत्ति का परित्यागकर भौतिक पदार्थों के साथ सम्बन्ध स्थापित करता है जिससे वह उक्त परिस्थितियों को प्राप्त होता है। उक्त परिस्थितियों के परिहार के लिए आवश्यक है कि राग-द्वेष का निरुन्धन केवल 'समत्व-प्राप्ति की अवस्था में सम्भव है, जिसका विस्तृत विवेचन पूर्व में सम्पन्न हो चुका है। यदि पूर्व विवेचित समस्त तथ्यों का पुन: अवलोकन किया जाये तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन-धर्म में प्रतिपादित षडावश्यक सभी परिस्थितियों में, सभी कालों में पूर्णत: प्रासंगिक है। सन्दर्भ : १. सागरमल जैन, जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक
अध्ययन, भाग-२, पृ० ३९३, (नियमसार, १२५ से उद्धृत). २. उत्तराध्ययन, १९/९०-९१. ३. हरिभद्र, अष्टक-प्रकरण, ३०-१. ४. संयुक्तनिकाय, १/१/८. ५. सुत्तनिपात, ३/३७/७. ६. सुत्तनिपात, ३/३७/७. ७. गीता, शांकरभाष्य, ६/६२. ८. आवश्यकनियुक्ति, ११०९. ९. धम्मपद, १०९. १०. श्रीमद्भगवद्गीता, १८/६५. ११. योगशास्त्र, तृतीय प्रकाश, स्वपज्ञोवृत्ति. १२. आवश्यकनियुक्ति, आचार्य भद्रबाहु. १३. उदान ५/५, अनुवादक, भिक्षु जगदीश काश्यप, महाबोधिसभा, सारनाथ. १४. कृष्णयजुर्वेद - ‘दर्शन और चिन्तन' : भाग २, पृ० १९२ से उद्धृत. १५.खोरदेह अवेस्ता, ५/२३-२४. १६. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १५४९. १७. काउस्सगं तओ कुज्जा सव्वदुक्खविमोक्खणं। उत्तराध्ययन २६-४२. १८.आवश्यकनियुक्ति, गाथा १५९४-९६.
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