________________
४८ :
श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४
किया है कि वे समस्त रूप, समस्त फल पार्श्व की दृष्टि में निस्सार हैं, भौतिक हैं। इस प्रकार पार्श्व का याचक रूप नहीं अपितु समर्थ रूप सामने आता है। अचेतन को चेतन मानने का भाव बन्धन का भाव है और मिथ्या परिणति के कारण जीव इस संसार में भ्रमण कर रहा है। अचेतन को अचेतन और चेतन को चेतन मानने का विवके जिसके अन्दर जागृत हो जाता है वह रत्नत्रय मार्ग के द्वारा मोक्ष के सम्मुख पहुँचता है। इस प्रकार की साधना का पथिक अनुपमेय है, दुर्जेय है, इस बात का विचार न कर दुष्टपुरुष उद्धतता पूर्वक उससे मायायुद्ध की याचना करता है। ऐसा व्यक्ति देव है, तो भी पशुतुल्य है, जिसे जिनसेन ने गुरसुरपशु कहा है। इस प्रकार मेघदूत में अचेतन को चेतन मानकर उसका मानवीकरण है तो पाश्र्वाभ्युदय में इस प्रकार के भावों के प्रस्तुतीकरण से मूढ़ता, विवेकहीनता सिद्ध कर संसार के भ्रमण से मुक्ति का मार्ग अपनाने और वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त कर विवेक से कार्य करने का उपदेश है।
यद्यपि पाश्र्वाभ्युदय में जैन धर्म के किसी सिद्धान्त का विशेष रूप से प्रतिपादन नहीं किया गया है तथापि, मेघदूत के अनेक प्रसंगों को आचार्य जिनसेन ने जैन मत के अनुकूल ढालने का प्रयास किया है। एक अन्य उदाहरण में मेघदूत में उज्जयिनी के महाकाल मन्दिर का वर्णन है तथा उसके अन्दर शिव का अधिष्ठान बताया है। पाश्र्वाभ्युदय में महाकाल वन के कलकल नामक जिनालय का वर्णन है। मेघदूत में वर्णित पशुपति शब्द का यहाँ पशु आदि प्राणियों के रक्षक भगवान् जिनेन्द्र अर्थ व्यंजित होता है।
पार्वाभ्युदय में भारतवर्ष की गंगा आदि नदियों को तीर्थों का प्रतिनिधि कहा गया है। प्रतिनिधि होनेके कारण उनमें स्नान करने में कोई दोष नही है, क्योंकि तीर्थ के प्रतिनिधि भी पापों को नष्ट करने वाले होते हैं। मेघदूत में गंगा को जहनुकन्या तथा सागर पत्रों को जाने के लिए स्वर्ग की सीढ़ियों के रूप में चित्रित किया गया है। जैन परम्परा इन पौराणिक कथाओं का समर्थन नहीं करती है, अत: उसे इस रूप में कहा गया है कि लौकिक रूढ़ि के अनुसार जहनु की कन्या के रूप में प्रसिद्ध तथा सगरपुत्रों को स्वर्ग तक ले जाने वाली स्वर्ग की सीढ़ी के तुल्य है।
मेघदूत में गंगा का वर्णन करते हुए कालिदास ने कहा है कि गंगा ने पार्वती के मुख पर स्थित भ्रूभंग को मानों फेनों से हंसकर तरंग रूप हाथों को चन्द्रमा के ऊ । लगाकर शिव के केशों को पकड़ लिया है। जैन परम्परा की मान्यता में भगवान् आदिनाथ की जटाजूट युक्त प्रतिमा हिमवान् पर्वत के प्रपात स्थल पर है, उसी के समीप गंगा बहती है। इसी प्रकार का वर्णन जिनसेन ने इस प्रकार किया है - “जिस गंगा (हिमवान् पर्वत के पक्ष सरोवर से निकली हुई) महानदी ने तरंग रूप हाथों को
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org