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श्रमण, वर्ष ५५, अंक १-६/जनवरी-जून २००४
संयम, शान्ति प्रभूति सद्गुणों का निरूपण हुआ है, जिसका अनुगमन कर मानव अपने समस्त द्वन्द्वों, विषमताओं, हिंसाओं, तनाओं से निवृत्ति पा सकता है और अपने जीवन में सुख, शान्ति, स्थिरतादि को प्रतिष्ठित कर सकता है। साथ ही साथ परिवार, समाज तथा राष्ट्र में राग-द्वेष द्वारा समुत्पन्न स्वार्थपरता, विषमता, संघर्ष, हिंसा, तनावादि तत्वों को विनष्ट कर एकता, समता, अहिंसा, प्रभूति सद्गुणों को प्रतिष्ठित किया जा सकता है। इन जीवन मूल्यों को अपनाकर परिवार, समाज व राष्ट्र सुन्दर, स्वस्थ, समृद्ध एवं आदर्श स्वरूप को प्राप्त हो सकता है। षडावश्यक में ऐहिक मूल्यों के साथ-साथ आध्यात्मिक मूल्यों की भी स्थापना हुई है। इस पर गमन करते हुए साधक स्वयं पुरुषार्थ सम्पन्न करता है, जिससे वह अपनी स्वाभाविक शक्ति को प्राप्त करता है। अपनी स्वभाविक शक्ति द्वारा वह साध्यावस्था को प्राप्त होता है। साध्यावस्था में वह समस्त द्वन्द्वों, तनावों, संघर्षों, विषमताओं, दुर्गुणों आदि से परे हो जाता है। फलत: समत्व रूपी आदर्श उसके अन्तर्मानस में देदीप्यमान हो जाता है। इस अवस्था में साधक के हृदय में समभाव, अहिंसा, सत्य, विनय, निष्काम प्रभृति सद्गुणों की सरस सरिता का प्रवाहन होता रहता है। समत्व द्रष्टा सभी प्राणियों को स्वयं में तथा स्वयं को सभी में देखता है। उसकी जीवन दृष्टि 'जीओ और जीने दो' की होती है और वह उसी का पालन करता है। उक्त विवेचन से निष्कर्ष निसृत होता है कि जैन-धर्म में प्रतिपादित षडावश्यक पूर्णत: प्रासंगिक है।
___ध्यातव्य है कि अब तक षडावश्यक के अन्तर्गत उन पक्षों की विवेचना हुई, जिसमें प्राणी अपने स्व-स्वरूप का परित्यागकर पर-स्वरूप का ग्रहण करता है। तत्पश्चात् स्व से पर की ओर च्युत होने के मूल कारण (राग-द्वेष) की खोजकर उसके निरुन्धन के मार्ग को स्पष्ट करते हुए विभावास्था से स्व-स्वभावावस्था की ओर प्रतिगमन की अवस्थाओं का निरूपण हुआ। अब वर्तमान परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में भी षडावश्यक की उपादेयता एवं भूमिका की विवेचना आवश्यक हो जाती है। वर्तमान में मानव भौतिकता की आंधी में बहिर्मुखी बनकर उन जीवन-मूल्यों का परित्याग कर रहा है जिससे वह सुख, समृद्धि, शान्ति, विनयशीलता, एकता, समता, संयम प्रभृति सद्गुणों को प्राप्त करता है। मानव बहिर्मुखी बनकर विषमता, हिंसा, संघर्ष, स्वार्थपरता, अन्याय, अत्याचार, भ्रष्टाचार इत्यादि को अपना रहा है जिससे वह स्वयं अशान्त व व्यथित है। परिवार, समाज व राष्ट्र परेशान है, चिंतित है। यह प्रगति नहीं है, प्रत्यत प्रगति के नाम पर विकसित होने वाला भ्रम है। आज आवश्यकता है, जो अतिक्रमण हुआ है उससे पुन: वापस लौटने की। उन जीवन मूल्यों के पुनर्स्थापना की जिसके अतिक्रमण से वर्तमान परिस्थिति उत्पन्न हुई है। ध्यातव्य हो कि समस्त परिस्थितियों का मूल उत्स राग-द्वेष है। राग-द्वेष के निमित्त ही प्राणी अपनी स्वभाविक
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