________________
जैन धर्म में प्रतिपादित षडावश्यक की समीक्षा और इसकी प्रासंगिकता : ४३
में
है, सम्यक्त्व विशुद्ध होता है और कष्टों को समान भाव से सहन करने की शक्ति विकसित होती है साथ ही जीवन के सर्वोच्च आदर्श को प्राप्त करने की प्रेरणा मन उद्बद्ध होती है। तत्पश्चात् वंदन का विधान है। इसमें साधक मन, वचन और शरीर से सद्गुण सम्पन्न गुरु का स्तवन तथा अभिवादन करता है। वंदन से साधक का अहंकार विनष्ट होता है, जिससे उसे विनय की उपलब्धि होती है । विनय से ही व्यक्ति का हृदय सरल बनता है और सरल हृदय वाला व्यक्ति ही स्वयं द्वारा कृत दोषों की आलोचना कर सकता है। सरल हृदय में ही समत्व - साधना सम्पन्न हो सकती है। इसी के निमित्त वंदन के पश्चात् जैन धर्म में प्रतिक्रमण का निरूपण हुआ है। यह जीवन को सुधारने का श्रेष्ठतम उपाय है। मानव की यह स्वभाविक प्रवृत्ति है कि वह अपने सद्गुणों का तो सदा स्मरण रखता है, किन्तु दुर्गुणों को भूल जाता है। लेकिन जब साधक अपने जीवन का गहराई से निरीक्षण करता है तो उसे अपने जीवन में असंख्य दुर्गुण दिखायी देते हैं। इससे निवृत्ति हेतु आत्मदोषों की आलोचना आवश्यक है। आलोचना से पश्चाताप की भावना का उदय होता है। इसमें दोष विनष्ट हो जाते हैं। चतुर्विंशतिस्तव, वंदन तथा प्रतिक्रमण से साधक जीवन संयम की ओर प्रशस्त होता है। संयमी जीवन को और अधिक परिष्कृत करने हेतु षडावश्यक के अन्तर्गत कायोत्सर्ग का विधान अभिहित हुआ। कायोत्सर्ग का प्रधान उद्देश्य है - आत्मा का सान्निध्य प्राप्त करना और उसका सहज गुण है मानसिक संतुलन बनाए रखना। मानसिक संतुलन में बुद्धि निर्मल होती है। शरीर पूर्ण स्वस्थ रहता है । कायोत्सर्ग से शरीर को पूर्ण विश्रान्ति प्राप्ति और मन में अपूर्व शान्ति का अनुभव होता है। इसमें क्रोध, मान, माया और लोभ का उपशमन एवं अमंगल विघ्न और बाधा का परिहार होता है। चूँकि अस्थिर चित्त में आसक्ति और तृष्णा के प्रवेश की सम्भावना सदैव ही वर्तमान रहती है जिससे शान्ति स्थापना में विघ्न उत्पन्न होता है और समत्व के भंग होने की सम्भावना रहती है । एतदर्थ तन और मन की स्थिरता सम्पन्न हो जाने के पश्चात् जैन-धर्म में षडावश्यक के अन्तर्गत प्रत्याख्यान का विधान अभिहित हुआ। इसमें मानव-1 -प्रवृत्ति को अशुभ योगों से विस्थापित कर शुभ योगों में केन्द्रित किया जाता है। प्रवृत्ति को शुभयोग में केन्द्रित करने से इच्छाओं का निरुन्धन हो जाता है, तृष्णाएँ शान्त हो जाती हैं जिससे साधक को शान्ति उपलब्ध होती है। प्रत्याख्यान से साधक के जीवन में अनासक्ति की विशेष जागृति होती है। इसमें वह जिन पदार्थों को ग्रहण करने की छूट रखता है, उन पदार्थों को भी ग्रहण करते समय आसक्त नहीं होता । अर्थात् उसके अन्तर्मानस में समस्त भौतिक पदार्थों के प्रति अनासक्ति का भाव समुत्पन्न होता है ।
इस प्रकार स्पष्ट है कि जैन धर्म में प्रतिपाद्य षडावश्यक का मानव जीवन में प्रभूत महत्व है। इसमें मानव के ऐहिक मूल्यों- एकता, अहिंसा, समभाव, नम्रता,
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Jain Education International