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जैन-धर्म में प्रतिपादित षडावश्यक की समीक्षा और इसकी प्रासंगिकता : ३७
के अन्तर्मानस में जिस प्रकार की श्रद्धा या भावना होगी उसी के अनुरूप उसका जीवन बनेगा। इसी के निमित्त जैन साधना में तीर्थंकरों की स्तुति का विधान अभिहित है और एतदर्थ षट्कर्म के अन्तर्गत चतुर्विंशतिस्तव को स्थान दिया गया है।
साधना के आदर्श रूप में तीर्थंकरों की उपासना के पश्चात् तृतीय आवश्यक के रूप में साधना मार्ग के पथ-प्रदर्शक गुरु की विनय का विधान जैन-धर्म में अभिहित है। मन, वचन और काय का वह प्रशस्त व्यापार जिसमें पथ-प्रदर्शक गुरु एवं विशिष्ट साधनारत साधकों के प्रति श्रद्धा और आदर प्रकट किया जाता है, वंदन है। इसमें उन्हीं व्यक्तियों को प्रणाम किया जाता है जो साधना पथ पर अपेक्षाकृत आगे बढ़े हुए हैं। जैन विचारणानुसार जो साधक चारित्र एवं सद्गुणों से सम्पन्न हैं, वे ही वंदनीय हैं| आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक निर्युक्ति में सुस्पष्ट शब्दों में लिखा है - ऐसे गुणहीन व्यक्तियों को नमस्कार नहीं करना चाहिए, क्योंकि गुणों से रहित व्यक्ति अवन्दनीय होते हैं। अवन्दनीय व्यक्तियों को नमस्कार करने से कर्मों की निर्जरा नहीं होती न ही कीर्ति में वृद्धि होती है। असंयम और दुराचार से अनुमोदित होने पर नये कर्म बंधते हैं। अत: उनको वन्दन अनुचित है। एक अवन्दनीय व्यक्ति जो जानता है कि मेरा जीवन दुर्गुणों का आगार है, यदि वह सद्गुणी व्यक्तियों से नमस्कार ग्रहण करता है तो वह अपने जीवन को दूषित करता है। असंयम की वृद्धि कर अपना ही पतन करता है।' पुनश्च, जैनधर्म की दृष्टि से साधक में द्रव्य चारित्र और भाव- चारित्र दोनों ही आवश्यक है। गुरु को ऐसा होना चाहिए कि जिसका द्रव्य और भाव दोनों ही चारित्र निर्मल हो; व्यवहार और निश्चय दोनों ही दृष्टियों से जिसके जीवन में पूर्णता हो, वही सद्गुरु वन्दनीय और अभिनन्दनीय है। साधक को ऐसे ही सद्गुरु से पवित्र प्रेरणा ग्रहण करनी चाहिए। वन्दन में ऐसे ही सद्गुरु को नमन करने का विधान है। वंदन के फलस्वरूप गुरुजनों से सत्संग का लाभ होता है। सत्संग से शास्त्र - श्रवण, शास्त्र श्रवण से ज्ञान, ज्ञान से विज्ञान और फिर क्रमशः प्रत्याख्यान, संयम-अनास्रव, तप, कर्मनाश, अक्रिया एवं अन्त में सिद्धि की उपलब्धि होती है। वंदन यथार्थ रूप में सम्पन्न हो, इसके लिए आवश्यक है कि वंदन के समय साधक के अन्तर्मानस में किसी भी प्रकार की स्वार्थ भावन/आकांक्षा/भय अथवा अन्य किसी प्रकार के अनादर की भावना विद्यमान नहीं रहनी चाहिए। जिनको वन्दन किया जाय उनको समुचित सम्मान प्रदान करें। उस समय साधक, मन, वचन और काय में एकाकारता होनी चाहिए जब वह वन्दनीय के चरणों में नतमस्तक हो ।
तथागत बुद्ध ने धम्मपद में कहा है- सरल मानस वाले महात्माओं को नमन करना चाहिए। सदा वृद्धों की सेवा करने वाले और अभिवादनशील पुरुष की चार वस्तुएँ वृद्धि को प्राप्त होती हैं - आयु, सौन्दर्य, सुख और बल । श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने "माँ नमस्कुरू" कहकर वंदन के लिए भक्तों को उत्प्रेरित किया है। १०
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