________________
श्रमण, वक्ष ५५, अंक १-६
जन २००४
जैन-धर्म में प्रतिपादित षडावश्यक की समीक्षा
और इसकी प्रासंगिकता
अनिल कुमार सोनकर*
भारतीय आचारशास्त्र में सम्पूर्ण जीवन का आधार और लोक स्थिति का व्यवस्थापक नीति-शास्त्र साध्य के निर्देशन एवं नैतिक मान्यताओं की समीक्षा के रूप में दर्शन; आचरण के विश्लेषण के रूप में विज्ञान और चरित्र-निर्माण के रूप में कला है। इसमें उन नियमों का निरूपण हुआ है, जिन पर चलने से मनुष्य का ऐहिक,
आमुष्मिक एवं सनातन कल्याण होता है; समाज में स्थिरता और सन्तुलन स्थापित होता है तथा जिनके पालन से व्यक्ति और समाज दोनों का ही हित होता है। ‘स्वभाव दशा की उपलब्धि' को परमश्रेय के रूप में स्वीकार करने वाले जैनाचार-मीमांसा का भारतीय आध्यात्मिक साधना में अमिट स्थान है। भारतीय आचार की सभी धाराओं का परमश्रेय - 'समत्व' जैनाचार-मीमांसा के अन्तर्गत मानसिक क्षेत्र में 'अनासक्ति' या 'वीतरागता' के रूप में; सामाजिक क्षेत्र में 'अहिंसा' के रूप में; वैचारिकता के क्षेत्र में अनाग्रह या 'अनेकान्त' रूप में और आर्थिक क्षेत्र में 'अपरिग्रह' रूप में अभिव्यक्त होता है। इस प्रकार जैनाचार-मीमांसा में परमश्रेय के रूप में जो मोक्ष है, वही धर्म है और जो धर्म है, वही 'समत्व-प्राप्ति' है।
यदि सिद्धान्त रूप में यह स्वीकार किया जाय कि वेद और उपनिषद् ही समस्त भारतीय आचार दर्शनों का उद्गम है तो किसी अर्थ में उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप जनसामान्य के कल्याण के लिये आचार-व्यवहार के सुव्यवस्थित नियमों का प्रतिपादन करने वाला जैनाचार व्यापक आदर्शों वाला वह वैज्ञानिक जीवन-पद्धति है जो मनुष्य की आचार-शुद्धि और साधना के द्वारा चरम उन्नति का समर्थ आश्वासन प्रतिपादित करते हुए मनुष्य को मनुष्यत्व से सम्पन्न करने की क्षमता रखता है साथ ही अन्यान्य परम्पराओं के विपरीत मुक्तिदाता के रूप में किसी एक सर्वोच्च सत्ता सम्पन्न ईश्वर अथवा तीर्थंकर के अनस्तित्व का निर्देश करते हुए उस आस्था का विधायक है कि मनुष्य अपने प्रयासों एवं सद्कर्मों से जगत् में सर्वोच्च स्थिति (मुक्तावस्था) को प्राप्त कर सकता है। मानव के ऐहिक मूल्यों की प्राप्ति का साक्षात् हेतु तथा पारलौकिक * आइ० सी०पी०आर० फेलो, दर्शन एवं धर्म विभाग, कला संकाय, का०हि०वि०वि०, वाराणसी।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org