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जैन दर्शन में निहित वैज्ञानिक तत्व : ३१
हैं। तिलोयपण्णत्ती में अनेक आकृतियों के आयतन एवं पृष्ठ क्षेत्रफल ज्ञात करने के सूत्र एवं उनके अनुप्रयोग मिलते हैं। धवला में घनाकार लोक के आयतन ज्ञात करने की प्रक्रिया में अद्वितीय एवं अन्यत्र अनुपलब्ध विधि का विस्तृत विवरण उपलब्ध है।२६ गणितसंग्रह में गोलीय खण्ड का पृष्ठ क्षेत्र ज्ञात करने का सूत्र पर्याप्त शुद्धता के साथ उपलब्ध है वस्तुत: इसका खात व्यवहार प्रकरण संपूर्णत: ठोस ज्यामिति का ही अध्याय है।
(१५) आधुनिक बीज गणित (Modern Algebra) के मूलाधार समुच्चय की अभिधारणा ही नहीं अपितु भेद-उपभेद, उदाहरण, उन पर संक्रियायें, षट्खंडागम की धवला टीका में राशि नाम से उपलब्ध है। राशि वहाँ समुच्चय का ही पर्यात है, एकैकी संगति (One One Mapping) सुक्रमबद्धी प्रमेय (Well Ordering Theorem) का वहाँ प्रयोग हुआ है। विश्व विख्यात जैन कर्मसिद्धान्त का आधुनिक निकाय सिद्धान्त से अद्वितीय साम्य है। वहाँ कर्मों के बंध, अस्रव, संवर, निर्जरा में जिन पद्धतियों का विवेचन है वे सब वर्तमान शताब्दी में विकसित निकाय सिद्धान्त के समकक्ष हैं।
यह प्रासंगिक ही होगा कि जैन गणित से सम्बद्ध समस्त ग्रन्थों एवं सन्दर्भो का अविलम्ब संकलन कर गणितज्ञों, प्राकृत एवं संस्कृत भाषाविदों तथा जैन दर्शन के मर्मज्ञ विद्वानों के एक दल द्वारा उनका विश्लेषण किया जाये जिससे विश्व क्षितिज पर जैन गणित को गौरवपूर्ण ढंग से प्रतिष्ठित किया जा सके। सन्दर्भ : १. गोम्मटसार (जीवकाण्ड), आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती, टोडरमल की
भाषा वचनिका सहित, जैन सिद्धांत प्रकाशिनी संस्था-कोलकता, १११९ ई०,
पूर्व पीठिका, पृ० ५८. २. गणितसारसंग्रह, (हिन्दी संस्करण), जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर, में
डॉ० हीरालाल जैन एवं आ०ने० उपाध्ये का ग्रंथमाला संपादकीय, १९६३ ई०,
पृ० x. ३. रत्नकरण्ड श्रावकाचार, आचार्य समन्तभद्र..............२/४३ से २/४६. ४. आवश्यक कथा..............श्लोक १७४. ५. गणिसारसंग्रह, आचार्य महावीर (८५० ई०), अध्याय-१, श्लोक-१६ (१/
१६). ६. त्रिंशतिका, आचार्य श्रीधर, पं० सुधाकर द्विवेदी, वाराणसी १८९९ ई०. 7. D.E. Smith, Ganita-Sara-Samgraha of Mahavirācārya, B.M.
(Leipzing), 1908, P. 106-110.
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