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श्रावकधर्मप्रदीप
को उत्तम मानता है। समयानुसार अपनी प्रवृत्ति पर और धर्म के स्वरूप पर जब कभी विचार करता है तब अपनी प्रवृत्ति की निन्दा भी करता है और धर्म प्रभावना के कार्यों के करने में सदा उत्साहशील रहता है, कभी प्रमादी नहीं होता। पाक्षिक शब्द का सीधा अर्थ है-जिसे धर्म का पक्ष हो। यही कारण है कि पाक्षिक श्रावक धर्म का कभी अपमान नहीं सह सकता, भले ही वह धार्मिक प्रवृत्तियों और आचरणों के यथाविधि पालन करने में स्वयं समर्थ न हो सके, तो भी वह धार्मिक प्रभावना तथा उसपर आनेवाले सैकड़ों विध्न बाधाओं से रक्षा करने में कभी पीछे पैर नहीं रखता, फिर भले ही ऐसे अवसर पर उसे अपने जीवन भर की कमाई खो देनी पड़े, लाड़ प्यार से पाले गए अपने शरीर को कठोर यातनाओं में फंसा देना पड़े।
पाक्षिक श्रावक धर्म-भवन की सम्पत्ति की रक्षा करनेवाला सच्चा सैनिक है। वह कर्तव्यशील होता है। पाक्षिक श्रावक के प्रायः कषायों की प्रबलता के कारण यद्यपि चारित्र अत्यल्प होता है तथापि उन्हीं कषायों की शुभ प्रवृत्ति की प्रबलता के कारण अवसर आने पर वह अपना सर्वस्व त्याग देने में भी नहीं चूकता। वह धर्मरक्षा के लिए केवल वीर ही नहीं होता, दक्ष भी होता है। किस पद्धति से धर्म रक्षा होगी इसका विचार करने में उसकी बुद्धि बड़ी कुशाग्र होती है। कदाचित् पाक्षिकाचार का आचरण करनेवाला यदि निर्धन होता है तो धर्म-रक्षा में अपना तन लगा देता है। यदि मध्यम श्रेणी का होता है तो अपना तन और धन दोनों लगा देता है और यदि सम्पन्न होकर शक्तिशाली होता है तो अपनी सम्पूर्ण संपत्ति और वैभव को भी लात मारकर अपने जीवन का मूल्य धर्म की रक्षा में आँकता है। यह पाक्षिक की प्रवृत्ति है जो सदा स्पृहणीय मानी गई है।।८।।
प्रश्न-पाक्षिकस्य प्रवृत्तिस्तु धार्मिका कीदृशी वद? धर्मकार्येषु दक्षोऽपि पाक्षिकः अत्यल्पाचारमप्याचरन् किमाचारमाचरति? पाक्षिक श्रावक की धार्मिक प्रवृत्ति कैसी होती है?
(उपजाति:) सद्धर्मसंस्कारवशाद्धि येन यज्ञोपवीतोऽपि धृतस्त्रिरत्नः। दानार्चनादौ च कृता प्रवृत्तिः स पाक्षिकस्स्यात्सुखशान्तिमूर्तिः।।९।।
सद्धर्मसंस्कारवशादित्यादि-पाक्षिकस्तु सर्वोत्कृष्टवीतरागद्वेषस्वरूपात्मधर्मस्य पुनःपुनर्भावनया आत्मोद्धारक-सम्यग्दर्शन-ज्ञान- चरित्रत्रितयात्मकं धर्मं धारयिष्यन् तच्चिह्नस्वरूपम् सूत्रत्रितयात्मकं कण्ठसूत्रं धारयति। तस्मात्तद् “यज्ञोपवीतः” इति कथ्यते। यज्ञोपवीतस्य स्वरूपं तद्धारणपद्धतिश्च
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