________________
श्रावकधर्मप्रदीप
लगता है तथा जन्मसम्बन्धी सूतक दश दिन प्रमाण लगता है। इसके बाद भी पीढ़ियों में क्रम क्रम से दोनों सूतक हीन होते जाते हैं। इन दिनों में श्रावक को अशौच सम्बन्धी सभी नियमों का नियमित पालन करना चाहिए। अन्यथा अनेक प्रकार की हानि होना सम्भव है। १५३ । १५४ ।
१९८
प्रश्न:
वद सूतकचिह्नं किं वा तत्प्रयोजनं गुरो ।
हे गुरुदेव ! सूतक का चिह्न क्या है तथा सूतक मानने का प्रयोजन क्या है,
कहें
(अनुष्टुप्)
मृतस्य देहसंसर्गात् वस्त्रपात्रगृहादिकम् । स्याद् दुर्गन्धमयं हेयं तच्छुद्धयै सूतकस्य वा ।। १५५ ।। कौ मिथो मोहनाशाय तदेव क्रियते विधिः । नृणां वृत्तिः पशोर्भिन्ना बोधार्थमिति धार्मिकैः ।। १५६ ।। युग्मम् ।।
कृपाकर
मृतस्येत्यादिः - मृतप्राणिनः देहः स्वयं रोगाणां मन्दिरमस्ति । तथा मरणानन्तरं तु शरीरं तत्कालत एव गलति तथा जीवराशयस्तत्र समुत्पद्यन्ते । अतः दुर्गन्धमयमपि भवति । तत्संपर्कात् वस्त्रादिकं पात्रादिकं गृहादिकञ्च दुर्गन्धमयं भवति । तत् शुद्ध्यर्थं सूतकं क्रियते तथा मिथः परस्परं या मोहस्य परम्पराऽस्ति यया स जीवः विकलीक्रियते तन्नाशाय कालस्यापेक्षा वर्तत अतः सूतकस्य विधिः क्रियते । नराणां वृत्तिः पशुतो भिन्ना एव इति परिज्ञानार्थं धार्मिकैः सूतकस्य विधिः क्रियते । १ ५५|१५६ ।
मृत मनुष्यों का शरीर एक तो स्वयं रोगों का मन्दिर है अतः वैसे ही अपवित्र रहता है। उससे सम्बन्धित वस्त्र, पात्र और गृहादिक भी गलित शरीर की दुर्गंधि के समान दुर्गन्धमय रोगकारक बन जाते है, अतः उस अशौच से बचने के लिए सूतक विधि के नियमों का पालन आवश्यक है। गलित शरीर में असंख्य जीवराशि उत्पन्न होती है, उनका विनाश भी रुक नहीं सकता। इसलिए तथा परस्पर में जो मोह का अतिरेक है उसे दूर करने के लिए भी काल अपेक्षित है। अतः जन्म-मरण का अशौच उक्त काल की मर्यादा के भीतर बताया गया है।
मनुष्य की प्रत्येक वृत्ति विवेकपूर्ण है पशुओं की तरह अविवेक पूर्ण नहीं है इस बात का बोध भी इन आवश्यक नियमों से ही मालूम पड़ता है, अतः इनका पालना आवश्यक कर्त्तव्य है। जो लोग इन शास्त्रोक्त लाभदायक नियमों का पालन नहीं करते वे शारीरिक और धार्मिक हानि को उठाते हैं अतः पूर्वज आचार्यों द्वारा प्रतिपादित सूतक
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org