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श्रावकधर्मप्रदीप
परिग्रहपरिमाणव्रतं स्यात्तस्य सौख्यदम् । ध्यानस्वाध्यायलीनस्य सारासारविचारिणः ।।१७६ ।।
धनादीनामित्यादिः - ज्ञानदर्शनादीन्येव हि जीवस्य निजद्रव्याणि, न तु गृहादीनि । तानि तु निजस्वभावाद् भिन्नानि परद्रव्याणि । परद्रव्यग्रहणन्तु न न्याय्यम् । तस्य परिहार एव कर्त्तव्यः । यदि प्रत्याख्यानावरणस्य चारित्रमोहनीयभेदस्योदयात् परिहर्तुमसमर्थस्स्यात्तर्हि परपदार्थानां एकदेशतस्तु त्यागः कर्त्तव्य एव। जन्ममृत्युजराकीर्णे भवे आशया जीवति निराशया तु म्रियते । मुक्तिमार्गे तु आशा एव मृत्युः आशारहितत्वमेव कल्याणहेतुः । आशाग्निः तु सदा दहति असन्तोषभावनाङ्कष्टरूपामुत्पादयति । निराशा तु शीतलजलेन्दुपादहिमस्पर्शचन्दनानुलेपनशीतलच्छायापिरिग्रहादिवत् । हृदि शातिं सन्तोष च पूरयति। तस्मात्कारणात् आशाग्निशान्त्यर्थं धनधान्यादीनां यथाशक्ति हीनकरणमेवोचितम् । तदेव परिग्रहपरिमाणव्रतमस्ति। परिमिते परिग्रहेऽपि प्रतिदिनं जिनपूजने मुनिदाने स्वाध्यायशालायां शास्त्रदाने विद्यादाने छात्राणामाहारभैषज्यपुस्तकादिवितरणे गृहविहीनेषु धनादिरहितेषु साधर्मिजनेषु च द्रव्यदानं गृहस्थस्य देशद्र में स्ति । तद्व्रतमेव गृहस्थानां सुखप्रदायकमस्ति । यथासमयं स्वव्रतानुकूलं निर्दोषपद्धत्या स्वल्पद्रव्यस्य अर्जनादिकं विधाय ध्यानस्वाध्यायजिनपूजनादिकार्येषु तत्त्वोपदेशाध्यात्मचिन्तादिविचारेषु च शेषसमयस्योपयोगः कर्त्तव्यः । एवंविधाचारेण गृहिणां लौकिकव्यवहारेष्वपि सौख्यम्भवति। पारलौकिकोऽपि लाभः स्यात् । तृष्णाग्निनाशात् परमसुखं च भजति अतः कर्त्तव्यमेव परिग्रहणपरिमाणव्रतमिति । १७५/१७६ ।
जिन्हें हम लाकर संग्रह करें ग्रहण करें वह “परिग्रह" है। आत्मा में ज्ञान दर्शन आदि अनन्त गुण हैं। वही आत्मा का निज भण्डार है। उसे छोड़कर धनधान्यादि का जो यावन्मात्र संग्रह है वह सब पाप है। यह आत्मा अनादिकाल से इसी परद्रव्य ग्रहण
कारण पराधीन हो रहा है। जब तक यह परद्रव्यग्रहण को त्यागकर स्व-स्वरूप को प्राप्त नहीं करता तब तक सुखी नहीं हो सकता । अतः यह बात निश्चित हो जाती है कि जिस किसी प्रकार हो प्रत्येक जीव का कल्याण पर - पदार्थ ग्रहण में नहीं, उसके त्याग में है। यदि चारित्रमोहनीय के भेद प्रत्याख्यानावरण का तीव्रोदय हो और पर-पदार्थ से मोह न छूटे तो भी उसका एकदेश त्याग अर्थात् क्रमिक त्याग करना चाहिये । इस क्रमिक त्याग को ही देशव्रत या परिग्रह परिमाणाणुव्रत कहते हैं।
धन-धान्य, खेत, मकान, रुपया, सोना, चाँदी, धातु तथा वस्त्र आदि पदार्थों का अपनी आवश्यकता के अनुसार प्रमाण करने शेष का त्याग करना यह त्याग की विधि है। इस त्याग से आत्मा में अनन्त आशाओं का अन्त हो जाता है और असन्तोष और तृष्णा सन्तोष सुख में परिणत हो जाती है। यह व्रत का अनुपम लाभ है। आशा अग्नि
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