Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 312
________________ नैष्ठिकाचार २८१ है। रात्रिभुक्तित्याग ऐसा इस प्रतिमा का नाम नहीं है। किन्तु रात्रिभुक्तिव्रत ऐसा नाम है। जिसका अर्थ है रात्रि में ही भोगग्रहण, प्रकारान्तर से दिन में भोग त्याग ही है। दूसरी व्याख्या ऐसी भी की जाती है कि यह प्रतिमा रात्रिभोजनत्याग के लिये है। यहाँ एक प्रश्न उपस्थित हो जाता है कि क्या पंचम प्रतिमा तक रात्रि भोजन चालू था जो इस प्रतिमा में इसकी चर्चा आई। इसका उत्तर यह है कि अभी तक व्रती स्वयं चारों प्रकार का रात्रि भोजन नहीं करता था, पर गृहाश्रम में छोटे-छोटे बच्चे होते हैं उन्हें प्रसंगानुसार भोजन देना पड़ता था। जैनेतर अतिथियों को भी भोजन देना पड़ता था। अथवा ऐसा करनेवालों की प्रशंसा या अनुमोदना करनी पड़ती थी। इस प्रतिमा से इसका भी त्याग हो जाता है। दोनों व्याख्याएँ इष्टाधायक हैं। २२ अभक्ष्य के त्याग में रात्रि भोजन त्याग प्रथम प्रतिमा में ही हो गया तब छठी प्रतिमा में रात्रि भोजन त्याग की बात कहना यद्यपि संगत नहीं है ऐसा कहा जा सकता है तथापि कारित और अनुमोदना से रात्रि भोजन त्याग इसके पूर्व न था। अतः यहाँ उसका बुद्धिपूर्वक त्याग किया गया है। जो श्रावकोत्तम उक्त प्रकार उभय व्याख्याओं को स्वीकार कर षष्ठ प्रतिमा को पालता है वह व्रतियों में प्रशंसा के योग्य माना जाता है। इन बंधनों से मुक्त होनेवाले का ही स्वानन्दस्वरूप मुक्ति सुख में निवास होता है।२०६। सातवीं ब्रह्मचर्य प्रतिमा का स्वरूप (वसन्ततिलका) स्त्रीणां कथापि किल मानवमात्रकस्य चेतोविकारजननीति विचार्य तास्तत् । त्यक्त्वात्मसौख्यनिलये निवसेत् सदायो ब्रह्मव्रती स निपुणो भुवि भाग्यशाली।।२०७।। स्त्रीणामित्यादि:- तात्पर्यमेतत् येन वतिना भावितद्वादशभावनाभिर्जगत्स्वरूपं परिज्ञातं पञ्चेन्द्रियभोगानां भुजङ्गता च निर्णीता। संसारपरिभ्रमणात् भीतेन तेन तन्मूलकारणं स्त्रीपरिग्रह निश्चित्य स्त्रीशब्दश्रवणमात्रमपिव्यथाकारकमित्यनुभूयते। यस्याःस्मरणमात्रमपि सुखानुभूतिमुत्पादयति स्म सा अधुना स्मरणमात्रेणैव विरागकारणभूता प्रतिभाति। तद्विषयविरक्तस्तु सः विचारकः विचारयत्येवं यत् अस्मिन्नेव जन्मनि बाल्ये मया स्वातन्त्र्यसुखमनुभूतम् । विषयवाञ्छया सुखपरम्पराप्राप्त्यभिलाषेण स्वर्णवद्देदीप्यमानज्वलज्ज्वलने पतितपतङ्गवत् स्त्रीसौन्दर्यमोहितमतिः दुःखपरम्परामाप्तवान् । स्त्रीपुरुषसंयोगादेव द्रव्यसंसारस्य-पुत्रपौत्रादिरूपस्य, भावसंसारस्य रागद्वेषरूपस्य चोत्पत्तिर्भवति। पुत्रादीनामुत्पत्तौ इष्टसंयोगाभिमननाद् रागोत्पत्तिः। तेषामानुकूल्येम प्रवृत्तौ तु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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