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नैष्ठिकाचार
मनःशुद्धिपूर्वकं कायशुद्धिपूर्वकञ्च आहारादिकमपि निर्दोषमस्ति इति सूचयेत् । एकादशमप्रतिमाराधाय नवधाभक्तिअर्घ्यदानम् न करणीयमेतदपि आचार्यणाम् केषाञ्चिन्मतम् । अर्ध्यप्रदेयमिति वर्तमानसमये केषाञ्चिदाचार्याणां पद्धतिर्वतते । परमश्रद्धया सन्तुष्टेन भक्तिवता ज्ञानवता च श्रावकेण धैर्यमालम्ब्य उदारचित्तेन स्वशक्त्यनुसारं यद्दानं नवधाभक्तिपूर्वकं दीयते तदेव ग्राह्यम्भवति क्षुल्लकस्य नान्यथा । दत्तमेवंविधमन्नं स्थित्वा स्वभाजने श्रावकप्रदत्तभाजने वा अत्ति । स्वाध्यायध्यानतत्परः सः गुरुकुलेष्वेव वनेषु वसेत् । न तु क्षुल्लकः स्वातंत्र्यमर्हति । गुरोरभावे जिनमंदिरे तीर्थंकरप्रतिमासन्निधावेव व्रतं व्रतिसाक्षिकं धारयेत् तथा चैत्यालये वने वा समानाचारधारकैः श्रावकैः सह वसेत् । स्वगुरुणां अन्यसधर्मणाञ्च यथायोग्यं सेवाञ्च कुर्यात् । तेषां हस्तपादादिमर्दनं रुग्णावस्थायां असहायावस्थायां वा यत्र तत्र मलमूत्रश्लेष्मादिविसर्जने कृते तदपाकरणं आर्षवाक्य श्रावणेन तेषां मनःसंक्लेशदूरीकरणं समाधिसमये स्वस्वार्थहानावपि तेषां समाधिसाधनं एवमनेकविधं वैयावृत्यं कुर्यात् । क्षुल्लकस्य एतदेव स्वरूपं संक्षेपतः ।। २११ ।।
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ग्यारहवीं प्रतिमा का नाम है उद्दिष्टत्याग प्रतिमा। इसके दो भेद हैं- प्रथम का नाम क्षुल्लक और दूसरे भेद का नाम है ऐलक । क्षुल्लक का अर्थ है छोटा और ऐलक का अर्थ है बड़ा। इनमें से पहिले भेद क्षुल्लक के स्वरूप का वर्णन इस श्लोक में आचार्य ने किया है।
दश प्रतिमा के बाद श्रावक इसे स्वीकार करता है तथा जो अन्य प्रतिमाधारी इस प्रतिमा को स्वीकार करना चाहता है वह अपने माता पिता भाई बहन स्त्री पुत्र आदि बंधु बांधवों से मोह ममता का त्याग करता है। अपने प्रतिकूल चलनेवाले, अपनी निन्दा करनेवाले, अकीर्ति मिथ्यापवाद करनेवाले, आलोचना करनेवाले अथवा बिना कारण ही अपनी दुष्टता से वैर करनेवाले शत्रुओं में द्वेष ईर्ष्या असूया आदि नहीं करता। सबको समान दृष्टि से देखता है। वह विचार करता है कि अपने शुभाशुभ कर्म का फल ही जीव इस संसार में भोगता है। यथार्थ में न कोई बंधु है न कोई शत्रु है। राग-द्वेष कषायों के वशीभूत होकर ही यह जीव स्वानुकूल वर्तन करने वालों पर राग और प्रतिकूल चलने वालों पर द्वेष करता हैं।
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इस संसारिक व्यवहार में पंचेन्द्रियों के विषय में साधक या सहायक व्यक्ति या पदार्थ ही इष्ट मान लिए जाते हैं। जो भोगोपभोग में बाधक है ऐसे व्यक्ति या पदार्थ अनिष्ट माने जाते हैं। संसारिक स्वार्थ केवल पंचेन्द्रियों के विषय और क्रोधादि कषायें हैं । परमार्थ से विचार किया जाय तो आत्मा के हित के ये दोनों विरोधी हैं। श्री दौलतरामजी कवि ने अपनी भाषा स्तुति में बहुत सुन्दर शब्दों में लिखा है और भगवान् से प्रार्थना
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