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नैष्ठिकाचार
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भिक्षुवदेव तस्य वृत्तिः। अनाहूते केनचित्स्यादुपवासः। इत्येव कठिनव्रताराधनात् तस्य वैराग्यपरिणामभिवृद्धेः मुनिपदाधिष्ठानाय योग्यता संपद्यते।।२१०।।
दशमी प्रतिमाधारी श्रावक परिग्रह के सञ्चयादि में, गृहारम्भ के कार्यों में व विवाहादि कार्यों में अपने कुटुम्बी जनों के द्वारा प्रार्थना किए जाने पर भी अपनी सम्मति नहीं देता। यही विशेष त्याग इस प्रतिमा में होता है। मन, वचन, काय और कृत कारित अनुमोदना से इसे आरम्भ परिग्रह का त्याग है। मात्र दो तीन वस्त्रों के व भोजन और शौच हेतु एक दो वर्तनों के तथा शयनासन के हेतु चटाई आदि के अतिरिक्त अन्य कोई परिग्रह इसके पास नहीं है। इस प्रतिमा में नवम प्रतिमा के परिग्रह की अपेक्षा और भी न्यूनता आ जाती है।
यह गृह कुटुम्ब तथा धनादि से विरक्त हो देव वन्दना, स्वाध्याय, सामायिक और जप आदि कार्यों में अपना समय लगाता है। किसी के द्वारा यदि भोजन के लिये आमंत्रण दिया जाय तो उसे अपने लिए भोजन सम्बन्धी आरम्भ की अनुमति का दोष मान कर स्वीकार नहीं करता तथापि भोजन के समय यदि कोई सज्जन, चाहे वे उसके अपने पूर्व गृह के हों, या किसी अन्य घर के श्रावक हों, बुलाने के लिये आकर भोजन की प्रार्थना करें तो बिना किसी स्वपर भेद के समता बुद्धिपूर्वक भोजन के हेतु चला जाता है। स्वगृह का कोई पक्ष मोह उन्हें नहीं है। सब ही लोगों के साथ उसका समान व्यवहार है। न किसी से राग विशेष है और न किसी से बैर। शरीर से भी मोह नहीं है तब अन्य वस्तु से मोह होने की बात दूर ही है।
यह अपने पास नरम वस्त्र आदि की एक प्रतिलेखनी रखता है। मयूर पिच्छ तो ग्रहण करने की आज्ञा नहीं है तथापि कोई भी मृदु उपकरण से प्रतिलेखन करके ही स्थान, शयन, आसन अथवा किसी पदार्थ के उठाने रखने आदि का वह अभ्यास करता है। जीव दया की उठी हुई भावना उसे ऐसा करने को बाध्य करती है।
भिक्षु संज्ञा प्राप्त न होने पर भी इसकी रुचि भिक्षुवत् ही है। इससे आगे का पद भिक्षुक का है। प्रकारान्तर से यह पद भोजन प्राप्ति की अपेक्षा भिक्षु के पद से भी कठिन है। भिक्षु तो भिक्षार्थ श्रावक गृह तक स्वयं जाता है, पर यह धीर वीर स्वेच्छा से श्रावक घर नहीं जाता, बुलाने पर ही जाता है और यदि कोई उसे भोजन के समय न बुलावे तो संतोष रख कर उपवास ही करता है। इस प्रकार के कठोर व्रत का धारक अनुमतित्यागी दशम प्रतिमाधारी होता है।२१०।
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