Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 325
________________ श्रावकधर्मप्रदीप यह निष्परिग्रही प्रासुक जल से शुद्धिमात्र के लिए यद्वा तद्वा स्नान करता है। नित्य देव वन्दना, स्तुति, सामायिक, जप और स्वाध्याय द्वारा ही अपने जीवन के क्षणों का सदुपयोग करता है। द्रव्य का त्याग होने के कारण द्रव्यपूजा नहीं करके मात्र भावपूजा करता है। जो परिग्रह में आसक्त व रागी है उसे देव पूजनादि कार्यों में द्रव्य का उपयोग कर शुभराग की ओर प्रवृत्ति करने का उपदेश था। अब जब बाह्य द्रव्यों में ही राग घट गया तब द्रव्य के आधार पर शुभराग करने का भी उपदेश नहीं रहा। अब जीवन में वीतराग धर्म की ही प्रधानता रहती है। २९४ उक्त प्रकार का वीतरागी आमंत्रित होने पर स्वयं के या किसी दूसरे साधर्मी के यहाँ शुद्ध प्रासुक भोजन ग्रहण करता है । पर किसी को स्वयं प्रेरणा नहीं करता तथा आगामी प्रतिमारोहण की प्राप्ति की अभिलाषा करता हुआ अपने गृहीत व्रतों का परिपालन करता है। वह नवम प्रतिमा का धारी है ।। २०९ ॥ वदानुमतित्यागस्य किं चिह्नं वर्तते गुरो । गुरुदेव! अनुमतित्याग नामक दशमी प्रतिमा का क्या स्वरूप है, कहिए (वसन्ततिलका) संसारभोगविषये विषमे व्यथादे लग्नादिकार्यकरणेऽनुमतिर्न यस्य । वन्द्यः सतामनुमतेर्विरतः स धीरः वासं तनोतु सततं निजमन्दिरे सः । । २१० ।। संसारेत्यादिः - दशमप्रतिमाराधकः परिग्रहविषये आरंभविषये विवाहादिके वा कदाचिदपि स्वानुमतिं न ददाति । मनोवचः कायैः कृतकारितानुमोदनैरपि सर्वारम्भपरिग्रहत्यागः सञ्जायतेऽत्र । केवलमल्पवस्त्रमात्रपरिग्रहोऽस्य । नवमप्रतिमावत् शुद्धिमात्रस्नानं विधाय देववन्दनास्वाध्यायाध्ययनेषु समयं यापयति। जिनचैत्यालयप्रदेशे स्वाध्यायरतं तं भोजनसमये यः कश्चित् श्रावकः समागत्य भोजनाय प्रार्थयति तस्यैव गृहे आहारग्रहणं करोति स्वगृहे परगृहे वा । न स्वपरगृहयोरस्य कश्चिद्भेदः । न च कस्यापि पक्षमोहः । सर्वत्र समतापूर्ण भावेनैव व्यवहारोऽस्य । स्वस्य पुत्रपौत्रादिकेभ्यः कस्मिंश्चिद् विषये याचितसम्मतिं कदाचिदपि न ददाति । तत्र हानिः स्यात् लाभो वा, उभयत्र समभावस्तस्य । स्थानग्रहणे, शयने, आसने, वस्तुग्रहणे निक्षेपे च मृदुवस्त्रादिना प्रतिलेखनङ्करोति । गृहमोहत्यागात् स्वगोत्रजजन्ममरणसंबन्ध्यशौचं न तस्य भवति । न च भोजनात्प्राग्भोजनस्यामंत्रणं स्वीकरोति । तत्स्वीकरणे तस्यैव भोजनाद्यारंभाय अनुमतिदानस्य स्याद्दोषः । तस्मात् भिक्षावृत्तेरस्वीकारेऽपि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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