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नैष्ठिकाचार
परिपालन है। जिसने जीवन भर व्रत किया और अन्त समय समाधिसाधन न किया उसने जीवन भर कमाई हुई संपत्ति को उपयोग के पूर्व कुएँ में डाल दिया। ऐसा समझकर इस व्रत का अवश्य पालन करना चाहिए। इस प्रकार समाधिव्रत जो १२ व्रतों में भी गिना गया है उसका वर्णन प्रकरणसंगत होने से संक्षेप में किया गया है।
पुरुषों की तरह स्त्रियाँ भी उक्त प्रतिमाओं का पालन करती हैं। उनकी अवस्था के भेद से क्वचित् भेद हो जाता है। जैसे छठी प्रतिमा में कृतकारितानुमोदन से रात्रिभोजन त्याग होने पर भी जिस स्त्री की गोद में दूध पीता बच्चा है वह उसे अपना दूध पिलायगी, उसका त्याग उसे हो नहीं सकता। यदि करे तो बालक की अपमृत्यु का कारण होने से महान् दोष उत्पन्न होगा।
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इसी प्रकार ग्यारहवीं प्रतिमा में क्षुल्लिका के पास सोलह हाथ तक की धोती तथा एक ओढ़ने का वस्त्र और आर्यिका अवस्था में केवल एक धोती मात्र परिग्रह रहता है। इतने वस्त्र इनके लिये विधेय हैं। ये श्राविकाओं के संघ के साथ रहें। मासिक शरीरधर्म की कठिनाई के समय श्रावक के घर पर रहें। उस कठिनाई के दूर होने पर पुनः संघ में जाँय । अथवा संघ में भी योग्यता - द्रव्य क्षेत्र की अनुकूलता हो तो निर्वाह कर सकती हैं।
ये ग्यारहवीं प्रतिमाधारी शुद्धिनिमित्त तत्सम दूसरा वस्त्र लंगोटी आदि तथा धोती आदि भी रहने पर एक समय शरीर पर एक का ही उपयोग करें। आर्यिका केश लोच ही करे। इस तरह स्त्रीपर्यायगत योग्यता के अनुसार थोड़ा सा परिवर्तन होता है। ऐसा श्री १०८ चारित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागरजी का उपदेश है।
प्रतिमाधारी इच्छाकार या इच्छामि इस शब्द द्वारा परस्पर व्यवहार करें। इस शब्द का अर्थ है कि हमें मुनिपद की वांछा है, हम उसे चाहते हैं। साधारण श्रावक जुहारु आदि शब्दों द्वारा पारस्परिक व्यवहार करते हैं, ये इस प्रकार नहीं करते। इनका व्यवहार 'इच्छामि' शब्द द्वारा होता है। आर्यिका को 'वन्दामि' कह कर उनका सम्मान करना चाहिये। स्त्रियों के लिये यह पद सर्वोत्कृष्ट है। अतः उनका समुचित आदर करना चाहिये । स्त्रियों को ही उनकी सेवा करनी चाहिये ।
इस प्रकार ग्यारह प्रतिमाओं का वर्णन समाप्त हुआ तथा श्रावक धर्म की मर्यादा भी समाप्त हुई। इसके बाद पुरुष लंगोटी मात्र परिग्रह का भी त्याग कर मुनिपद को
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