Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 350
________________ नैष्ठिकाचार कीर्ति से कुछ भी प्रयोजन नहीं है । ग्रन्थ लेखन का उद्देश्य केवल लौकिक अपवाद जो धर्म पर निरर्थक आया है उसे दूर करना मात्र है | ५ | ६ ७ ८ लघुताप्रकाश(अनुष्टुप्) प्रमादान्मे क्वचित्स्याद्वा ग्रन्थेऽस्मिन् स्खलनं यदि । शोधयन्तु मुदा सन्तो वस्तुतत्त्वविचारकाः ।। ९ ।। ग्रन्थकार कहते हैं कि मेरे प्रमाद से इस ग्रन्थ के लेखन में यदि कहीं त्रुटी रह गई हो तो वस्तुतत्त्व का विचार करनेवाले सज्जन इसका शोधन कर लें । ९ । Jain Education International ३१९ (अनुष्टुप्) शान्तिसिन्धुसुधर्मी मामवतु ह्यवतु स्वयम् । कुरु कुरु स्वतुल्यान् नो वृषभादिजिनेश्वराः ।। १० ।। परमपूज्य आचार्य श्री १०८ शान्तिसागर जी तथा सुधर्मसागर जी मेरी रक्षा करें तथा ऋषभादि जिनेश्वर, आप हम सबको अपने समान बना लें । १० । ।। समाप्तोऽयं ग्रन्थः । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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