Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 348
________________ ग्रन्थकारप्रशस्तिः (अनुष्टुप्) आचार्यशान्तिसिन्धोर्मे दीक्षागुरोर्दयानिधेः। सूरेः सुधर्मसिन्धोर्हि विद्यागुरोः प्रसादतः ।।१।। त्रिविधाः श्राद्धधर्माश्च यथावल्लिखिता मया ।। तुष्टेन विश्वशान्त्यर्थं कुन्थुसागरसूरिणा ।।२।।युग्मम्। इस काल में विद्यमान दया के सागर और मेरे दीक्षागुरु श्री १०८ आचार्य शान्तिसागर जी तथा विद्यागुरु श्री १०८ आचार्य सुधर्मसागर जी के प्रसाद से विश्व में सुखशान्ति की वृद्धि हो ऐसे उद्देश्य को सामने रखकर श्रावक के तीनों प्रकार के भेदों को प्रतिपादित करने वाला यह 'श्रावकधर्मप्रदीप' ग्रन्थ मुझ कुन्थुसागरसूरि ने पूर्वाचार्य की परम्परा से आगत उपदेश के अनुसार लिखा है।१/२। इस श्रावकाचार का प्रयोजन (अनुष्टुप्) पूर्वाचार्यप्रणीताश्च श्राद्धाचारप्रदर्शकाः । सन्त्यत्र बहवो ग्रन्था ग्रन्थस्यास्य प्रयोजनम् ।।३।।. किं वर्तते गुरो ब्रूहि ज्ञातुमिच्छामि चार्थतः। प्रयोजनं विना ग्रन्थो नोपादेयो यतो भवेत् ॥४॥युग्मम्।। सर्वज्ञोपदेश के अनुसार पूर्वाचार्यों द्वारा रचित श्रावक के आचार का वर्णन करनेवाले बहुत से ग्रन्थ विद्यमान हैं, ऐसी अवस्था में इस नवीन ग्रन्थ की रचना का क्या प्रयोजन है? हे गुरुदेव! मैं जानना चाहता हूँ, क्योंकि प्रयोजन के बिना ग्रन्थ उपादेय नहीं हो सकता, अतः इसका यथार्थ कारण बताइये, ऐसा प्रश्न उपस्थित हो सकता है। इसका उत्तर ग्रन्थकार निम्न पद्यों में देते हैं। (अनुष्टुप्) जैनाहिंसातिरेकाद्धि हानिः स्याद् भारतस्य को ।। ब्रुवन्त्यज्ञानतः केचिदिति तद्बोधहेतवे ।।५।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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