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नैष्ठिकाचार
होकर ध्यान करते हैं पर दिन में नहीं । प्रकारान्तर से रात्रि में इनकी मुनिवृत्ति और दिन ऐलक वृत्ति रहती है। यह पद ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णों में ही धारण किया जाता है। इनमें अनेक भिक्षा का नियम नहीं है। केवल एक घर में ही आहार लेकर आ जाते हैं। आहार के बाद गुरु को सब प्रक्रिया निवेदन करते हैं तथा दिया हुआ प्रायश्चित्त ग्रहण करते हैं।
दैनिक, रात्रिक, पाक्षिक, मासिक, चातुर्मासिक और वार्षिक प्रतिक्रमण ये नियमतः करते हैं। चातुर्मास में एक स्थान पर रहते हैं। साधारणतः चातुर्मास गृहत्यागी सभी करते हैं। गृहस्थ भी करें तो धर्मसाधननिमित्त ऐसा देशव्रत ले सकते हैं, पर गृहत्यागी को तो इसका यथायोग्य पालन करना ही चाहिये । वर्षाकाल में सर्वत्र मार्ग अप्रासुक हो जाता है, सर्वत्र वनस्पति छा जाती है, सराशि भी विशेष उत्पन्न होने से मार्ग में चलना कठिन हो जाता है, अतः आरम्भत्यागी के लिए तो उस समय विहार करना सर्वथा अनर्थदण्ड है। इसके पूर्व तो गृह व्यापारादि का आरंभ संबंध होने से मार्गगमन का बंद करना संभव नहीं होता, पर आरंभ व्यापार का त्याग होने पर वह सहज ही बंद हो सकता है।
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यह ऐलक पदस्थ व्यक्ति मुनि का लघुभ्राता कहा गया है। इनके पञ्चाणुव्रत यहाँ महाव्रत की मर्यादा में पैर रखने लगते हैं, समित्यादिका भी उपयोग ये करते हैं और गुप्तिआदि का पालन करते हैं। ये सब मात्र प्रतिज्ञारूप या व्रतरूप नहीं है तथापि मुनि की तरह ही इनकी पालना ऐलक करते हैं। मयूरपिच्छिका रखते हैं तथा प्रतिलेखन करते हैं। दिन में मार्ग गमन करते हैं, रात्रि में नहीं, मात्र शौच आदि बाधा निवृत्ति हेतु ही रात्रि में गमन करते हैं, अन्य प्रकार से नहीं । हित, मित और प्रियवचन बोलते हैं। कठोर, विषम और पीड़ा कारक वचनों का स्वप्न में भी उच्चारण नहीं करते।
इस प्रकार ग्यारहवीं प्रतिमा का स्वरूप पूर्ण हुआ। इसके बाद कौपीन मात्र त्यागकर ये मुनिव्रत को अंगीकार करते हैं। श्रावक व्रत की समाप्ति ऐलक पद में हो जाती है।
प्रतिमारोहण की प्रथम शर्त थी कि जिसे संसार, देह व भोगों से वैराग्य हुआ हो वह इस मार्ग पर चले। ग्यारहवीं प्रतिमा के स्वरूप को प्राप्त करने पर वह बिल्कुल स्पष्ट जाता है। श्रावक के १२ व्रत जो द्वितीय प्रतिमा में धारण किए थे वे आगामी प्रतिमाओं में बढ़ते-बढ़ते इस प्रतिमा में अपनी मर्यादा समाप्त कर महाव्रतत्व को प्राप्त होने लगते
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