________________
२९८
श्रावकधर्मप्रदीप की है कि शत्रुओं से हम बच सकें यही आपसे हमारी इष्ट प्रार्थना है। जैसे
आतम के अहित विषय कषाय, इनमें मेरी परणति न जाय। मैं रहूँ आपमें आप लीन, सो करहु होंहु ज्यों निजाधीन।
इस प्रतिमाधारी ने इसका पूर्ण रहस्य समझ लिया है, अतः न केवल प्रार्थना करता है बल्कि निजाधीन होने के प्रयत्न में सफलता की कोटि के समीप पहुँच जाता है। वह पर पदार्थ मात्र में इष्ट या अनिष्ट कल्पना छोड़ चुका है। वह सतत प्रयत्नशील है कि किसी भी समय पंचेन्द्रिय विषयों में अथवा मान आदि कषाय में चित्त न जाय। मैं सदा अपने आप में स्थिर रहूँ। अपने निर्विकार स्वरूप स्वभाव से कभी विचलित न हो जाऊँ। इसी महान् प्रयत्न में अपना समय व्यतीत करता है। यह उसका महा पुरुषार्थ है। इसी पुरुषार्थ से वह संसार के दुःखरूप बंधनों से मुक्ति पायगा, यह उसका निश्चल दृढ़ विश्वास है।
यथार्थ में पांचों ही इन्द्रियाँ ज्ञान के लिए साधनभूत हैं। यदि उनका उपयोग पदार्थ के स्वरूपमात्र जानने के लिए किया जाय तो कोई अनिष्ट नहीं है। यदि आप मिष्ठान्न खाते हैं तो उसे मीठा समझिए और कड़वा पदार्थ खाते हैं तो आपकी जिह्वा उसे कड़वा कहे, इसमें कोई पाप नहीं है, यह तो पदार्थ के स्वरूप का निरूपण है। इतने ज्ञानमात्र से कर्मबन्ध नहीं होता। बन्ध तब होता है जब हम कड़वे के प्रति घृणा या द्वेष तथा मिष्ठान्न के ग्रहण के प्रति रागी हो उठते हैं, उसकी प्राप्ति के लिए स्वयं भी अनेक कष्ट सहते हैं और दूसरों को भी कष्ट पहुँचाते हैं। उस मिष्ठान्न के राग के कारण जो हमने कष्ट उठाए अथवा दूसरों से विरोध होने के कारण जो कष्ट होंगे उन सब ही कष्टों का हेतु मिष्ठान का राग है। यदि वह न होता तो हम इन आपत्तियों को अपने पास न बुलाते, अतः यह सिद्ध हुआ कि राग दुःख परम्परा का मूल कारण है। उससे जो सुख की कल्पना है वह तो क्षणमात्र है-पर उसकी प्राप्ति में, उसके संरक्षण में, उसके भोग में, उसके परिपाक में और उसकी प्राप्ति में बाधा देनेवाले व्यक्तियों के साथ संघर्ष करने में जो महान् कष्ट उठाने पड़ते हैं उनसे न केवल इसी जन्म के लिए किन्तु जन्मान्तर के लिए भी दुःखी हो जाते हैं।
कुछ भाइयों को यह प्रश्न होता है कि संसार दुःखमय ही है ऐसा एकान्त कथन उचित नहीं है। जैनाचार्यों द्वारा जहाँ अनेकान्त सिद्धान्त को अंगीकार करने का उपदेश दिया गया है, वहीं पर संसार को एकान्त दुःखमय बताया जाय यह कथन अपने ही
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org