Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 330
________________ नैष्ठिकाचार २९९ सिद्धान्त के विरुद्ध होने से उचित और न्यायसंगत मालूम नहीं पड़ता। उदाहरणार्थ हम मिष्ठान खाते हैं, नाटक देखते हैं, सुगंधित पुष्पों को सूंघते हैं, सुन्दर गान सुनते हैं तथा कामभोग करते हैं। इन सब कार्यों में सुख का अनुभव होता है। ऐसा होते हुए भी हमें वे सुखरूप नहीं किन्तु दुःखरूप ही हैं, ऐसा कथन मिथ्या है। जो बात प्रत्येक संसारी प्राणी के प्रत्यक्ष अनुभव गोचर है उसे मिथ्या कहना प्रत्यक्ष विरुद्ध होने से स्वयं मिथ्या है। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न सहज ही होता है कि जैनाचार्यों ने इतने महान् सुखदायक विषयों को मिथ्या समझकर किसलिए कठोर तपस्या को अंगीकार किया और क्यों अन्य व्यक्तियों को भ्रम में डाला है। ऐसा करने से उन्हें क्या लाभ है और किस सिद्धि की प्राप्ति होती है। प्रश्न अवश्य विचारणीय है। कोई भी उपदेश कितना ही सुन्दर हो और लाभदायक हो पर जब तक वह अपने अनुभव से लाभदायक प्रतीत न हो तब तक उसे कोई ग्रहण नहीं करना चाहता। यहाँ पर हमें अपने ज्ञान और सुख की कोटि का विवेक पूर्वक विचार करना है। यह बात हम संक्षेप में लिख चुके हैं कि इन्द्रियों द्वारा हमें ज्ञान की प्राप्ति होती है। ये केवल ज्ञानसाधक हैं, सुख दुःख साधक नहीं। सुख और दुःख तो हम मानसिक कल्पना द्वारा करते हैं। मन विचारक है, वह स्वयं पदार्थ के इस रूपादि का ज्ञान नहीं करता। इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान सामग्री का वह चर्वण करता है। दूसरों की कमाई ही खाता है। स्वयं कुछ नहीं कमाता। स्वयं वह केवल कल्पना के आकाश में उड़ा करता है। भ्रम उसे ही होता है और सम्यग्ज्ञान भी उसे ही। वह जितना बाधक है उतना ही साधक भी है। जब हम स्पर्शन इन्द्रिय द्वारा पदार्थ का स्पर्श करके शीत, उष्ण, कोमल, कठोर आदि आठ स्पर्शों का ज्ञान प्राप्त करते हैं वहाँ मात्र ज्ञान तो हमारा है। अन्य पदार्थ का संबंध केवल शरीर के साथ ही है। जब हम काम भोग करते हैं तब भी स्त्री या पुरुष को शरीर स्पर्श का ज्ञान स्पर्शन इंद्रिय से होता है इतना मात्र तो इंद्रिय का कार्य होने से वह तज्जन्य ज्ञान आत्मा भोगता है, बाकी शारीरिक संबंध तो शरीर से ही होता है। स्पर्श गुण आत्मा तक नहीं पहुँचता है। रसना द्वारा किया गया मिष्ठान्न भोजन उदर तक पहुँचता है, वह अनेक रसादि रूप परिणत होकर शरीर का अंगभूत हो जाता है, अथवा मल मूत्र कफ पसेव आदि रूप होकर बाहर निकल जाता है, आत्मा के पास उसके एक भी परमाणु की पहुँच नहीं है। आत्मा उसे भोग नहीं सकता, वह केवल उस मिष्ठान्न में होनेवाले रसज्ञान को भोगता है, रस को नहीं भोगता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org


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