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नैष्ठिकाचार
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ऐसी स्थिति में आत्मा अपने ज्ञान स्वरूप का त्यागकर विषय ग्रहण के समय विषय रूप नहीं हो सकता, अतः वह विषयों का भोग नहीं कर सकता। वह केवल विषय जनित ज्ञान का ही भोक्ता है। सुख-दुःख कर्मफल का भोक्ता मात्र व्यवहार से कहा जाता है। परमार्थ में ऐसा है नहीं। श्री नेमिचंद्राचार्य ने द्रव्यसंग्रह नामक छोटे निबंध में जो लिखा है वह इस पूर्वोक्त कथन को प्रमाणित करता है। जैसे
ववहारा सुहदुःखं पुग्गलकम्मफलं प जेदि ।
आदा णिच्चयणयदो चेदणभावं खु आदस्स।
अर्थात् आत्मा सुख दुःख रूप कर्म फल का भोक्ता है यह केवल व्यवहार कथन है। निश्चयनय से तो वह अपने चैतन्य भाव का ही भोक्ता है।
उक्त कथन से यह सिद्ध है कि आत्मा प्रत्येक इन्द्रिय द्वारा केवल पदार्थ का ज्ञानमात्र करता है। उन पदार्थों में जिन पर मनकी इष्ट कल्पना है उन्हें सुखदायक मानता है और जो उसे अच्छे नहीं लगते उन्हें अनिष्ट समझ दुःखदायक मानता है। अर्थात् सुख दुःख की कल्पना मन के द्वारा हुई। वास्तव में तो जीव ने केवल पदार्थ के ज्ञान का भोग किया है। वह उसका लक्षण या स्वरूप है, अतः उसी के भोगने में वह समर्थ है, अन्य पदार्थ को भोगने में उसका सामर्थ्य नहीं है, तथापि पदार्थ को सुखदायक मानकर उसमें भ्रमवश इष्ट अनिष्ट कल्पना करता है। जो पदार्थ एक के लिए इष्ट है वही दूसरे के लिए अनिष्ट है। जो एक प्राणी के लिए अनिष्ट है, वही दूसरे के लिए इष्ट है। जैसे किसी व्यक्ति को मिर्च खाने की आदत पड़ गई है, यद्यपि मिर्च का स्वाद चरपरा है फिर भी वह उसे इष्ट है। वही अन्य अनभ्यस्त पुरुष के लिए या बालक के लिए अनिष्ट है। इसी तरह जो पदार्थ किसी क्षेत्र में इष्ट है वही उस व्यक्ति के लिए दूसरे क्षेत्र में अनिष्ट रूप है। जैसे घर में साधारण धोती या बंडी पहिनना ही इष्ट है, पर सभा आदि में जाने पर वह वेष-भूषा अनिष्ट है। जो पदार्थ किसी काल में इष्ट है वही दूसरे काल में अनिष्ट है। जैसे ग्रीष्मकाल में महीन वस्त्र इष्टकारक थे वे ही शीत ऋतु में अनिष्टकारक हो जाते हैं। जो पदार्थ एक अवस्था में इष्ट हैं दूसरी अवस्था में अनिष्टकारक हो जाते हैं, जैसे जो दूध स्वस्थ अवस्था में मीठा और इष्टकारक लगता है, पित्त ज्वर की दशा में वही कड़वा लगता है और अनिष्ट हो जाता है।
इस तरह द्रव्य क्षेत्र काल भाव की परिवर्तित अवस्था में पदार्थ इष्ट और अनिष्ट रूप माने जाते हैं, जिन्हें एक बार सुखदायक माना जाता है उन्हें ही वह दूसरी बार
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