Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 336
________________ नैष्ठिकाचार पर उसे ले लें। अथवा पूर्व संगृहीत अन्न में से स्वादिष्ट भोजन ग्रहण कर शेष फेंक दें। ऐसा करनेवाला व्रती अपने व्रत से च्युत है। रसना इंद्रिय पर विजय प्राप्त करने के उद्देश्य से ही आरंभत्याग प्रतिमा में परगृह का भोजन स्वीकार किया गया था। इसलिए नहीं कि घर में द्रव्य की हीनता है, इससे गृहारंभ छोड़ कर पर घर स्वादिष्ट भोजन प्राप्त होगा, अतः पर गृह भोजन किया जाय। ऐसा करनेवाला व्रती नहीं, पापी है। वह व्रती के भेष में अपनी आत्मा को और दूसरों को ठगता है। उसने व्रती वेष को आजीविका का साधन बना लिया है, यह इस वेष का उपयोग न केवल भोजन मात्र के लिए करता है अपितु येन केन प्रकारेण भोले भक्तों व महिलाओं से अन्य प्रकार भी द्रव्य ठगने लगता है। ऐसा व्यक्ति व्रती नहीं, मिथ्या ही व्रतवेषी है। इसकी आत्मा संसार परिभ्रमण करेगी। कुयोनियों में भ्रमण कर घर-घर उच्छिष्टान्न का भोजन करेगी। जो व्रत पूज्यपद मुनिव्रत के अभ्यास के हेतु है उसका उपयोग यदि भोजन प्राप्तिहेतु किसी अज्ञानी ने किया है तो यथार्थ में उसने रत्नहार प्राप्त कर उसकी कीमत नहीं समझी और वह केवल हार में मणियों कथने वाले सूत पर मोहित हो गया है, इसलिए मणियों को तोड़ कर फेंक देता है और उस सूत से अपने फटे चिथड़े वस्त्रों को सीकर उपयोग में ला रहा है। ऐसा व्यक्ति दया का पात्र है। सुपात्र की गणना में गिनने योग्य नहीं । सुगुरु उसपर दया करें और उसे मार्ग पर लगावें । ऐसे भेषी से यदि भेंट हो तो श्रावकों को भी उससे घृणा न कर उसपर दया करनी चाहिए और उसे सन्मार्ग पर लाने का प्रयत्न करना चाहिए। श्रावक भी विवेकी हो तभी वह यह कार्य कर सकेगा। अविवेकी श्रावक उच्छृङ्खल व्यवहार कर उससे द्वेष करेगा और मार्ग पर न ला सकेगा। यदि विवेकी श्रावकों के प्रयत्न द्वारा वह सन्मार्ग पर न आवे तो उसे किसी सुगुरु के पास ले जाना चाहिए। वे उसे मार्ग पर अवश्य ले आने में समर्थ हो सकेंगे। यदि श्रावक तथा सुगुरु भी उसे मार्ग पर न ला सकें, वह दोनों की उपेक्षा कर दे तो श्रावकों का कर्त्तव्य है कि गुरु का आदेश पाकर उसके वेष को समाप्त कर उसे व्रती मानना छोड़ दें। व्रत पद के अनुकूल उसकी पूजा प्रतिष्ठा सम्मान आदि न करें। ऐसा करने से उसका वेष ग्रहण उसे निरर्थक जान पड़ेगा और अपनी ठगी वृत्ति में सफलता न मिलने से या तो वह सन्मार्ग पर आवेगा या उस वेष का त्याग करेगा। ३०५ सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं। निःशंकित अंग उसकी निर्भयता तथा जिनकथित तत्त्वों की अटल श्रद्धास्वरूप है। निःकांक्षित अंग-विषयों के प्रति विरागता का चिह्न है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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