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नैष्ठिकाचार
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शक्ति का उपयोग करें तो उनके साथ संघर्ष करने में महान् दुःख उठाना पड़ता है। यदि उस संघर्ष में विजय नहीं हुई और वह संगृहीत परिग्रह छिन गया तो इष्टवियोगज महान् दुःख हो गया।
पर पदार्थ द्वारा इच्छापूर्ति कर सुख प्राप्ति की अभिलाषा स्वप्नवत् है। ऐसा वस्तु का स्वरूप समझ कर जो बुद्धिमान् उन पदार्थों से मोह ममता का त्याग कर उनके बिना भी अपने मन में सन्तोष उत्पन्न कर लेते हैं वे ही परम सुखी हैं। वह स्वात्मोत्थ संतोष सुख है। स्वजन्य ज्ञान का सुख है। पर निमित्तजन्य न होने से वह स्थायी है। उसी के प्रयत्न में यह एकादश प्रतिमाधारी प्रयत्नशील है। अतः जो थोड़ी सी कमजोरी शेष है उसके कारण मात्र एक लंगोटी, एक खण्ड वस्त्र और एक भोजनपात्र बस इतना परिग्रह रखता है, शेष सब प्रकार के पदार्थों से उसने मोह का त्याग कर दिया है। कितना भी कष्ट का अनुभव करना पड़े वह उसमें सुखी है। पीछी कमण्डलु भी उसके पास होते हैं पर वे परिग्रह नहीं है, जीव रक्षा व शुद्धि के उपकरण मात्र हैं।
___ ग्यारहवीं प्रतिमा के प्रथम भेद क्षुल्लक पद प्राप्ति की जिन्हें इच्छा होती है वे ऐसे गुरु के पास जाते हैं जो स्वयं संसार परिभ्रमण से त्रस्त हैं और उससे उन्मुक्त होने के लिये प्रयत्नशील हैं। स्वयं आरम्भ परिग्रह से विरक्त हो कर अशान्ति के बीजभूत मोह का त्याग कर चुके हैं। परम दिग्मबर मुद्रा को धारण कर जो अपनी मुद्रा ही से स्वावलम्बन का पाठ पढ़ाते हैं। जो असंतोष, शोक, ईर्ष्या, बैर, माया, ममता और घृणा आदि का कभी अनुभव नहीं करते। ऐसे शान्ति-सुख के प्रदायक स्वगुरु की शरण में जाकर अपने कल्याण का मार्ग उनसे पूछते हैं। उनके बताए हुए सन्मार्ग को पूर्णरूप से ग्रहण करने में असमर्थ होने के कारण क्षुल्लक व्रत की दीक्षा लेते हैं। ___इस व्रत का धारी कतरनी या छुरा द्वारा अपने केवल मस्तक तथा दाढ़ी मूंछों के बालों को दूर करता है। इन्हें दूर कर लेने का प्रमाण कम से कम दो माह, मध्यम तीन माह और अधिक से अधिक चार मास है, इससे अधिक काल तक केश रखने से जीवोत्पत्ति की संभावना रहती है। यदि वह चाहे तो केशों का लोच भी अपने हाथों से कर लेता है। लोच करने में भस्म की सहायता ले लेता है। भस्म लगाने पर बालों में रूक्षता होने से पकड़ने में ठीक आ जाते हैं, इतना मात्र प्रयोजन है। भस्म के सिवाय अन्य किसी ऐसी वस्तु का प्रयोग नहीं करता जो बालों के उत्पाटन में सहायक हो। लोचक्रिया का प्रयोग इसलिए करता है कि कतरनी या क्षुरा की आवश्यकता भी न्यून हो जाय।
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