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श्रावकधर्मप्रदीप
दुःखदायक मानने लगता है। इससे यह सिद्ध हुआ कि पदार्थों में यदि सुखदायकत्व या दुःखदायकत्व होता तो वे सदा प्रत्येक क्षेत्र में और प्रत्येक अवस्था में प्रत्येक प्राणी को सुखदायक ही रहते अथवा दुःखदायक ही रहते पर ऐसा नहीं देखा जाता। अतः पदार्थों में सुख-दुःख की कल्पना प्राणी स्वयं करता है। सुख दुःखदातृत्व उनका स्वरूप नहीं है। तब उन पदार्थों में मोह और ममता करने का क्या प्रयोजन है?
अब रही सुख प्राप्ति की बात सो हमें जो सुख संसार में प्राप्त होता है वह वास्तव में अपनी इच्छा की पूर्ति में होता है। अर्थात् जो इच्छा उत्पन्न हुई उससे ही हम दुःखी हुए। जबतक उस इच्छा की पूर्ति नहीं हुई तबतक दुःख रहेगा। ज्यों ही पूर्ति हुई कि सुखानुभव हुआ। यथार्थ में हमारी इच्छारूप दुःख के नाश से सुख का जन्म हुआ है। अर्थात् जब हमको यह संतोष हो गया कि हमें अब उक्त पदार्थ नहीं चाहिए तब हम सुख का अनुभव करते हैं। सारांश यह कि या तो हमें पदार्थ ज्ञान के अनुभव में सुख का आभास मिला या सन्तोष उत्पन्न होने पर सुख मिला, पदार्थ से नहीं मिला। यह सुख क्षणस्थायी है, यह सन्तोष परपदार्थाधीन है, अतः इसे सुख रूप न कहकर दुःखरूप ही आचार्यों ने माना है। जो स्थायी है परनिमित्तजन्य नहीं है, स्वात्मोत्थ है, वह वास्तव में सुख है। संसार दुःख की न्यूनता मात्र है, अर्थात् कभी दुःखी प्राणी का दुःख कम हो जाय तो उसमें सुख मानता है। जैसे एक के सिर पर एक मन बोझ लदा हुआ है, यदि वह बीस सेर कर दिया जाय तो वह सुखी हो जाय। वह बीस सेर का बोझ ऐसे मनुष्य के सिर पर रखा जाय जिसके सिर पर अभी कोई बोझ नहीं था तो वह उस बोझ में दुःख का अनुभव करेगा। कारण इसका स्पष्ट है कि प्रथम का दुःख न्यून हुआ अतः सुखी हुआ दूसरे के दुःखमात्रा बढ़ी अतः दुःखी हुआ। बोझ दोनों पर बराबर है पर एक सुखी एक दुःखी हुआ। अतः दुःख की न्यूनता में सन्तोष उत्पन्न होने से, अथवा इच्छारूप महान् दुःख की न्यूनता से, या पदार्थ के ज्ञान का भोक्ता होने से सुख का अनुभव होता है, तथापि यह सुख अस्थायी है। मोह के कारण इच्छाओं की न्यूनता नहीं है, प्रति समय नवीन-नवीन इच्छाएँ उत्पन्न होती हैं। उनकी पूर्ति के हेतु अनेक पदार्थों की ओर यह दौड़ लगाता है, उनका संग्रह करता है, उनके संग्रह में कष्ट उठाता है और संग्रह हो जाने पर रक्षा की चिन्ता में दुःख उठाता है। उस संगृहीत पदार्थों में अनेकों की इष्ट कल्पना है, अतः उसे प्राप्त करने की इच्छा करनेवाले बहुत हैं। वे उसे ले न जाय अतः अन्य से सतर्क रहना पड़ता है। यदि वे लेने आवें, बाधा दें और
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