Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 335
________________ ३०४ श्रावकधर्मप्रदीप जब तक केशोत्पाटन या उनकी दूरीकरणक्रिया नहीं होती तब तक जो केश मस्तकपर रहते हैं उनका तेल आदि से कोई संस्कार नहीं करता। दाढ़ी या मूंछों के बालों की कोई साज संभाल नहीं करता। वे अपने स्वाभाविकरूप में रहते हैं और उन्हें वैसे ही घास की तरह उखाड़ देते हैं। क्षुल्लक अपने पास लंगोट (कौपीन) तथा एक खण्ड वस्त्र रखता है। खण्ड वस्त्र से यह तात्पर्य है कि जो वस्त्र अधिक से अधिक तीन सवा तीन हाथ ही लम्बा हो और अधिक चौड़ा न हो। जिसे यदि ओढ़ कर सोया जाय तो साढ़े तीन हाथ के पुरुष शरीर को पूरा न ढक सके। यदि पैर ढके हैं तो सिर उघाड़ और सिर ढाका जाय तो पैर उघाड़े रह जाँय। यह इसलिए कि अपने अग्रिम प्रतिमाभेद में ही वह इस परिग्रह से भी अपने को मुक्त कर लेना चाहता है। इसके पास एक कमंडलु रहता है जो शौच क्रिया के लिये प्रासुक जल रखने के प्रयोग में आता है। मृदु वस्तु या अमारी की पिच्छिका अथवा मयूर पिच्छिका द्वारा प्रतिलेखन करता है। प्रतिलेखन का अर्थ है जीव जन्तु जो प्रत्यक्षगोचर नहीं होते हैं या नेत्र की कमजोरी के कारण नहीं दिखाई देते हैं उनकी रक्षा पूर्वक ही उठना बैठना, आसन ग्रहण करना, वस्तु का उठाना रखना, मल मूत्र त्याग करना, यह व्रती उस मृदु पिच्छिका से स्थान को स्वच्छ कर निर्जन्तु होने पर ही उपयोग में लेता है। आहार ग्रहण की पद्धति में क्षुल्लक दो प्रकार के हैं। पहला एक भिक्षानियम और दूसरा अनेक भिक्षानियम। श्रावक के एक ही घर में जाकर वहाँ जो भिक्षान्न प्राप्त हो, उसे लेकर अपनी उदर पूर्ति करते हैं वे एकभिक्षानियम हैं। इनमें कोई एक भाजन (बर्तन) भोजनार्थ पास भी रखते हैं जो पीतल आदि साधारण धातु का हो और उसमें भोजन लेकर भोजन करते हैं। कोई बर्तन नहीं रखते श्रावक जिस बर्तन में भोजन परोस दे उस बर्तन में आहार कर लेते हैं। अनेक भिक्षानियम वाले क्षुल्लक अपने पास के बर्तन में एक दो तीन आदि घरों में प्राप्त भिक्षान्न संग्रह कर लेते हैं। वे लेते उतना ही है जितने में उदर पूर्ति हो जाय, उससे अधिक नहीं। अपनी उदर पूर्ति के योग्य संग्रह होने पर किसी श्रावक के घर जहाँ भी प्रासुक जल प्राप्त हो जाय वहाँ बैठकर भोजन कर लेते हैं। सर्व प्रथम जो भिक्षान्न पात्र में संगृहीत है उसे ग्रहण कर लेते हैं, यदि उतने से उदरपूर्ति नहीं होती तब इस अन्तिम गृह से भिक्षान्न लेते हैं अथवा प्रासुक जल वहाँ लेते हैं। ऐसा नहीं होता कि ये प्राप्तान यदि सामान्य है तो उसे छोड़कर अन्य रसवान् अन्य दूसरी जगह प्राप्त होने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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