Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 323
________________ २९२ श्रावकधर्मप्रदीप कथ्यते। एषोऽपि स्त्रीपुत्रादिममत्वमुत्सृज्य निर्ममतामापन्नः गृहे तिष्ठन्नपि वैराग्यमालम्बते। कौपीनं अधोवस्त्रं उत्तरीयं शिरश्छादनं अन्यदपि संस्तरादिकं अल्पपरिमाणेन वस्त्रं तथा भोजनाद्यर्थ शौचाश्च द्वित्रिपात्रमात्रञ्च स्वीकरोति। अन्यत् सर्व धनं धान्यं सुवर्णरूप्यं नानाभरणं शृंगारादिकञ्च परिहरति। अष्टमीप्रतिमायान्तु आरंभत्यागे कृतेऽपि धनादीनामपरित्यागः, अत्र तु तत्त्यागः क्रियते। अयमपि प्रासुकजलेन शुद्धिमात्रं विधाय केवलभावपूजां करोति। न द्रव्यपूजात्र विहिता, द्रव्यस्य परित्यागात् । केनाप्यर्थितः सदाशयेनामंत्रितश्च भुञ्जीत। स्वगृहभारं पूर्णतया पुत्रादिषु निक्षिप्य स्वयं तद्भारं भारवत्समुत्सृज्य निरिभरः परावलम्बनेन मुक्तः स्वेऽचले शुद्धे स्वभावे वसति स एव बुद्धिमान् नवमप्रतिमापालने समर्थः।२०९।। परिग्रह त्याग प्रतिमावान् अब अपने द्वारा परिग्रहीत परिग्रह को मुर्दे के श्रृंगार की तरह व्यर्थ समझता है अतः उसके त्याग की ओर प्रवृत्त होता है। उसे यह अनुभव होने लगता है कि मैं ब्रह्मचारी हूँ, स्त्री पुत्रादि कुटुम्बी अपने-अपने आत्मा के व अपने-अपने पुण्य पाप के स्वयं स्वामी हैं। मुझे पहिनने के दो चार वस्त्र और शौचादि निमित्त अथवा भोजनादि निमित्त १-२ वर्तनों के सिवाय अन्य परिग्रह का कोई उपयोग अपने लिये नहीं ज्ञात होता। तब इस भार को कब तक सिर पर रखे रहूँ। वह ऐसा विचार करता है। वह यह भी देखता है कि पुत्रादि जन उस परिग्रह के आकांक्षी हैं। उन्हें उसकी आवश्यकता है। मुझे वह भाररूप है। उपयोग में आता नहीं, रक्षा की चिन्ता और साथ में लगी है। तब वह अपने पुत्रादि को अन्य कुटुम्बवर्ग या अन्य साधर्मीजन पुरजन या परिजन के समक्ष बुलाकर विधिवत् उन्हें गृह भार सौंप देता है और स्वयं अपने को उस परिग्रह से मुक्त कर लेता है। ____ व्यापार के लेन देन में, गृह कार्यों में, पुत्रादि के विवाह आदि में, संबंधियों के व्यवहार आदि में, तथा अन्य सांसारिक कार्यों में, वह भाग नहीं लेता। न उनके अधिकारियों को उसके लिए कोई प्रेरणा करता है। यदि कोई उत्तराधिकारी इस प्रतिमाधारी से इन कार्यों में सम्मति माँगे और अपना अभिप्राय और उद्देश्य प्रकट करे तो उसकी उचितता और अनुचितता को प्रतिपादन करनेवाली अनुमति देता है। इतना मोह उसे शेष है। प्रेरणा फिर भी नहीं करता। अपनी सम्मत्यनुसार यदि पुत्रादि कार्य न करें तो अपने चित्त में दुखी नहीं होता। उन्हें आर्थिक हानि-लाभ होने पर शोक या हर्ष नहीं मानता। मोह के परित्याग के लिये यह अत्यावश्यक है। बिना मोह त्याग के यदि कोई उक्त पद का अवलंबन करे या आगे की प्रतिमाओं पर अथवा मुनिपद पर आरोहण करे Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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