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नैष्ठिकाचार
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काम के वशीभूत जीव मलमूत्रादि अपवित्र पदार्थों से उत्पन्न और उन्हीं अपवित्र पदार्थों के उत्पादक, शरीर के अंगों की जो यथार्थ में उनके लिए वाञ्छनीय नहीं हैं, वाञ्छा करता है। उनमें ही मोहित होता है। और उनके लिए अनेक प्रकार के दुःख उठाने को कटिबद्ध होता है। मरण जन्म पूर्वक होता है। जन्म और मरण इनमें यदि विचार किया तो जिस जन्म का हम महोत्सव मनाते हैं वह उत्सव मनाने योग्य नहीं है। जन्म ही तो मरण को आमंत्रण देता है। जिसका जन्म नहीं उसका मरण भी नहीं। जन्म के बाद ही बाल्यावस्था, युवावस्था, जरावस्था और रोगितावस्था आदि अनेक अवस्थाओं के दुःख प्राप्त होते हैं। अतः जन्म दुःखपरम्परा का कारण होने से इष्ट रूप नहीं है। मरण इसलिए अनिष्ट और शोकोत्पादक नहीं है कि वह जन्म के निमित्त से उत्पन्न होनेवाले सम्पूर्ण दुःखों का अन्त स्वरूप है। उसके द्वारा जन्म का नाश हो जाने से उस जन्म सम्बन्धी दुःखों का भी नाश हो जाता है। मुक्ति प्राप्ति के लिए भी मरण ही हेतु है। जिस मरण से केवल एक जन्म नष्ट होता है वह एक जीवन के दुःखों से छुटकारा करा देता है और जिस मरण के बाद जन्ममात्र का अभाव हो जाता है फिर जन्म धारण नहीं करना पड़ता वह श्रेष्ठ मरण परम महोत्सव है। इसीलिए जैन परम्परा में उस परम श्रेष्ठ मरण को (मोक्ष दिवस को) कल्याणकारी मानकर उसे परम पवित्र दिन माना जाता है। इस दिन शोक न मानकर परम हर्ष मानते हैं।
श्री भगवान् महावीर स्वामी का निर्वाणदिवस दीपावली महोत्सव के रूप में इसीलिए प्रतिवर्ष मनाया जाता है। इससे सिद्ध हुआ कि भवधारण रूप जन्म ही जो काम वासना की पूर्ति से उत्पन्न होता है, दुःखपरम्परा का मूल हेतु है। इस प्रकार अपने विवेक से विचार करके जो धीर वीर प्राणी अपनी आत्मशक्ति का अवलम्बन कर कभी भी कामोप सेवन में तत्पर नहीं होता, स्वप्न में भी स्त्री या पुरुष संयोग की इच्छा नहीं करता वहीं ब्रह्मचारी है।
भोगोपभोगों में कामभोग प्रधान है। उसका त्याग करने से भोगोपभोग परिमाण व्रत में उन्नति होती है। विषयभोगों के लिए तथा पुत्र पौत्रादि के लिए लोग परिग्रह का सञ्चय करते हैं। कामभोग का त्याग करने पर न संतान की वृद्धि होती है और न वह व्यक्ति अधिक परिग्रह का ही संचय करता है। परिग्रह पाप मूल है। उसकी कमी से पाप को हीनता स्वयं हो जाती है। इसलिए ब्रह्मव्रत को स्वीकार करना ही चाहिए।
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