Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

View full book text
Previous | Next

Page 319
________________ ૨૮૮ श्रावकधर्मप्रदीप वाणिज्येत्यादिः- पूर्वं तु दिग्व्रतदेशव्रतयोः व्यापारादिजनितलोभापकर्षात्तज्जनितस्यारम्भस्य न्यूनता यतः स्यादेवं विचार्य यमरूपेण तदन्तर्गतक्षेत्र एव नियमरूपेण दशस्वपि दिशासुगमनागमनयोर्नियमः कृतः। अधुना अस्यां प्रतिमायां वाणिज्यं व्यापारः सेवा शिल्पादिना अन्येन वा प्रकारेण जनसेवया जीविकानिष्पादनं, असिरिति क्षात्रवृत्तिः, मषिरिति लेखनादिकार्य, कृषिरन्नाद्युत्पादनं, इत्येवंप्रकारेण षड्वृत्तिरूपव्यापारजनितारम्भादिकं हिंसामृषावादपरधनापहरणभोगादिसेवनार्थार्थसञ्चयरूपं अत एव व्यथाकारकं सर्वमप्यारम्भं कुट्टनं पेषणं चुल्लीगृहस्वच्छता मृदादिना गृहलेपः अग्निज्वालनं तत्सन्धापवनं वाटिकारोपणं जलादिसेचनं वायुसञ्चालनं भूमिखननं वनस्पतिच्छेदनं इत्यादिगृहभोजनादिसहायकरूपमप्यारम्भं सर्वं प्रविहाय परित्यज्य यः निजशुद्धस्वभावप्राप्त्यर्थमेव सदा चिन्तनशीलः स्वगृहीतपञ्चाणुव्रतेषु महाव्रतत्वापादनाय प्रयत्नशीलः विशुद्धपरिणामी साहसिकः धर्मनिष्ठः अष्टमीं आरम्भत्यागप्रतिमामाराधयति स एव शुद्धः आरम्भत्यागीति निधीयते। अस्यामेव प्रतिमायां पञ्चाणुव्रतविशुद्धिपूर्वकं दिग्व्रतदेशव्रतानां पूर्णता भवति।२०८। आठवीं आरम्भत्याग प्रतिमा है। इस प्रतिमा में उस उद्देश्य की पूर्ति की जाती है जिसे सामने रखकर दिग्वत और देशव्रत धारण किए गए थे। दशों दिशाओं में आवागमन की मर्यादा करने का प्रयोजन यही था कि हम अपने लोभादि कषायों का संवरण कर व्यापार और तज्जनित आरंभ को नियमित क्षेत्र में करके तद्वहिः क्षेत्र में आरंभादिक का त्याग करें। आरंभ और परिग्रह में बहुत कुछ न्यूनता सप्तम ब्रह्मचर्य प्रतिमा में आ चुकी है; क्योंकि ब्रह्मचारी के लौकिक कुटुम्ब से भी मोह छूट जाता है, अतः उसके पास अब केवल स्वजीविका निर्वाहार्थ आरंभ व्यापारादि शेष रह गए थे। इस प्रतिमा में उस वीर ब्रह्मचारी ने बहुत बड़े साहस की बात विचारी है। इसलिए उसने सर्वथा व्यापार आदि आरम्भ कार्यों का यहाँ त्याग किया है और दिग्वत देशव्रती की पूर्णता की है। आरंभ त्याग आठवीं, नौवीं और दशमी इन तीन प्रतिमाओं में पूर्ण होता है। आठवीं में स्वयं आरंभ नहीं करता, तथापि अभी परिग्रह शेष है अतः कारित और अनुमोदन संबंधी दोष प्राप्त हो जाते हैं। यदि उसे आजीवन भूखा रहना पड़े, भोजन के न प्राप्त होने पर समाधि भी लेनी पड़े तो भी अष्टम प्रतिमावान् स्वयं आरम्भ के द्वारा भोजन का प्रयत्न नहीं करता। यदि उसे प्रासुक जलमात्र प्राप्त हो जाय तो केवल उसी से निर्वाह कर लेगा अथवा कच्ची दाल पानी में फुलाकर खायेगा या सूखे मेवादि मोल लेकर जल प्राप्ति की अवस्था में खाकर निर्वाह करेगा। ऐसा करना उसकी प्रतिमा में त्याज्य नहीं है। कदाचित् प्रासुक जल की प्राप्ति न हो सके तब वह उक्त प्रकार के भोजन पान से भी वञ्चित रहेगा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352