Book Title: Shravak Dharm Pradip
Author(s): Jaganmohanlal Shastri
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 316
________________ नैष्ठिकाचार २८५ है। रेशम यद्यपि स्वयं अशुद्ध नहीं है तथापि उसकी प्राप्ति में रेशम के कीड़ों का घात होता है, अतः हिंसामूलक होने से अहिंसाणुव्रती को ग्राह्य नहीं है। ऊन बालों से बनता है जो स्वयं देह का अपवित्र अंग है तथा अनेक त्रसों की उत्पत्ति के लिए योनिभूत है अतः ग्राह्य नहीं है। जिस मृत पशु को स्पर्श करने पर स्नान किए बिना शुद्धि नहीं उसके मृत चर्म को स्पर्श करने पर भी वही दोष प्राप्त होता है। अतः उसके जूता पहिनना या उन जूतों को पहिनकर लाई गई भोजनादि सामग्री का उपयोग करना वर्जित है। नियमित परिसंख्यात वस्त्र और अन्य अल्प परिग्रह का ग्रहण ही ब्रह्मचारी के लिए श्रेयस्कर है। यह प्रतिमा वर्तमान युग के लिए अत्यन्त उपयोगी और जनकल्याणकारी है यदि प्रतिमा-पालक इसका सदुपयोग करें। यह ब्रह्मचारी अहिंसक व्यापार कर सकता है और अपनी आजीविका स्वयं चला सकता है। शिक्षकीय कार्य, लेखन कार्य, (क्लर्क मुनीमी; पुस्तक लेखन, ग्रन्थ सम्पादन आदि), बैंकिंग का काम, अहिंसक मजदूरी तथा वाणिज्य आदि कार्य कर सकता है। यदि कुछ रुपया अपने पास हो तो अल्प ब्याज पर (जिससे कर्जदार को आन्तरिक कष्ट का अनुभव न हो) दिया जा सकता है। जुआ-सट्टा-लाटरी आदि कार्य प्रत्यक्ष से हिंसाकारकप्रतीत न होने पर भी अनेक अनर्थों व पापों के उत्पादक हैं अतः ये व्रतीमात्र को प्रारंभ से ही ग्राह्य नहीं है। इस प्रतिमा का धारी यदि गृहत्यागी नहीं है तो उद्योग से अर्थात् सेवा-कृषि-वाणिज्य-लेखन आदि से द्रव्योपार्जन कर अपनी आय से आजीविका चलाकर पराश्रित न हो, भिक्षाटन न करे, दानस्वरूप द्रव्य न लेवे, यदि उसे प्रीति और पद के योग्य सम्मानपूर्वक कोई दे तो मात्र आहार ले सकता है। जिसने गृह का त्याग कर दिया है वह गाँव-गाँव जाकर जनता को धर्मोपदेश सरलता से दे सकता है। गृहत्याग के कारण यदि अपने कुटुम्बवर्ग से सहायता लेनी व देनी छोड़ दी है तब वह केवल धर्मसाधन करने और धर्म प्रचार करने का कर्म करे। ऐसी अवस्था में जो उसका साधारण व्यय है उसे यदि गृहस्थ वहन करे तो उसे स्वीकार करने में कोई दोष नहीं है। आरंभत्याग आठवीं प्रतिमा में होती है। सातवीं प्रतिमावाला गृहविरक्त श्रावक रसोई बनाना आदि आरम्भ का त्यागी नहीं है। उसे चाहिए कि अपने पास योग्य अन्नादि सामग्री रखे व भोजन बना सकने योग्य वर्तन रखे। किसी भी स्थान पर धर्मोपदेश देने जाय, तो उस ग्राम के बन्धुओं से निमंत्रण की न प्रेरणा करे और न अपेक्षा करे। कोई अत्यन्त धर्म प्रीति से आमंत्रण दे तो उसे स्वीकार कर ले। उसे विभिन्न प्रकार के भोजनों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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