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नैष्ठिकाचार
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व्रतरूपोऽस्ति। अत्रैव तस्य परिपूर्णता भवति। व्रतेऽस्मिन् पर्वदिवसेषु अष्टम्यां चतुर्दश्याञ्च कषायविषयान् क्रोधाहङ्कारकपटलोभादिकान् पञ्चेन्द्रियविषयान् गृहकर्मसक्तिं व्यापाराद्यारम्भासक्तिं प्रमादजननीं चतुर्विधां भुक्तिञ्च त्यक्त्वा यः सदोपवासमुत्तममध्यमजघन्यभेदगर्भ यथानियमं कुर्वन्नास्ते स नूनं चतुर्थप्रतिमाव्रतपालकः स्यात् । प्रोषधोपवासस्य त्रयो भेदाः प्राक् प्रतिपादिता एवातो नेह प्रतन्यते। उप-समीपे स्वात्मनि निवासः स्यादुपवासः। स्वात्मध्यानं स्वस्यैवालम्बनं स्वोद्धारस्यैव चिन्तनं स्वात्मभिन्नशरीरचिन्तापरित्यागः पञ्चेन्द्रियविषयचिन्तात्यागः कषायनिमित्तभूतार्थचिन्तापरित्यागः गृहोद्योगारम्भयोरपि चिन्तापरित्यागः कौटुम्बिकमोहविरागः समताभावश्च चतुर्थप्रतिमायां नियमेन स्यादिति तात्पर्यम् । २०४।
पहिले व्रत प्रतिमा में सामायिक शील की तरह शिक्षाव्रतों में प्रोषधोपवास भी एक शील रूप से वर्णित किया है। उस व्रत का प्रारंभ यद्यपि व्रत प्रतिमा में ही हो गया है तथापि उस व्रत की परिपूर्णता अर्थात् निरतिचार आवश्यक परिपालन इस प्रतिमा में होता है। वहाँ यह व्रत अभ्यासरूप में था, अतः अतिचारों की संभावना थी, यहाँ चतुर्थ प्रतिमा में अब वह व्रतरूपता को प्राप्त हो जाता है, अतः उसका निरतिचार प्रतिपालन इस प्रतिमा में आवश्यक है।
यह बताया जा चुका है कि श्रावक के उत्तर व्रत कुल १२ हैं। जिनका प्रारम्भ द्वितीय प्रतिमा में हो जाता है। किन्तु उन व्रतों की पूर्णता वहाँ नहीं होती है। वहाँ केवल पञ्चाणुव्रत निरतिचार पालन होते हैं। शेष सात उत्तरगुण शीलव्रत हैं। अर्थात् व्रती उन्हें अपने अभ्यास में लेता है और तद्रूप अपने स्वभाव को बनाता है। इस प्रयत्न में अनभ्यास के कारण कभी अतिचारादि दोष लग जाते थे। अब उन सातों की पूर्णता के हेतु ही आगे की सम्पूर्ण प्रतिमाएँ हैं।
श्रावक के व्रत एकदेश हैं। एकदेश का अर्थ है असंपूर्ण। अपूर्णता में अनेक भेद होते हैं पूर्णता का कोई भेद नहीं होता। एक रुपया में एक आना रूपये का अपूर्णरूप है। और पन्द्रह आना भी अपूर्णरूप है। तथापि दोनों में कई गुना अन्तर है। इसी प्रकार देशव्रती होने पर भी द्वितीय प्रतिमा के और दशवीं ग्यारहवीं प्रतिमा के श्रावकों में बहुत बड़ा अन्तर है। श्रावक जितनी प्रतिमा बढ़ता जाता है उतना ही श्रावक व्रतों को पूर्णकर महाव्रतों की प्राप्ति की ओर जा रहा है।
सामायिक व्रत में जिस प्रकार सामायिक का काल उसी व्रत की तरह व्यतीत करने का उपदेश दिया था उसी प्रकार इस प्रतिमावाला श्रावक अपने पर्व के दिनों का अर्थात् प्रत्येक अष्टमी और प्रत्येक चतुर्दशी का सम्पूर्ण समय साम्य भाव से व्यतीत करता है।
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