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नैष्ठिकाचार देशावकाशिकव्रत का स्वरूप
(आर्या) दिग्व्रतनियते देशे परमितकालं पुनश्च सङ्कोचः ।
देशावकाशिकाख्यं तव्रतमुदितं विशेषज्ञैः ।।१८०।। दिगित्यादिः- दिव्रतनियते दिग्व्रतनिर्धारिते देशे प्रदेशे परिमितकालं निर्धारितसमयं यावत् पुनश्च संकोचः स्वल्पीकरणं देशावकाशिकाख्यं देशावकाशिकसंज्ञं तद्वतं स्यादिति विशेषज्ञैर्जिनागमरहस्यज्ञैर्विपश्चिद्भिरुदितं कथितं प्रतिपादितमिति यावत् ।१८०।
दिग्व्रत में आजन्म के लिए दशों दिशाओं में आवागमन के क्षेत्र की मर्यादा ली थी। देशव्रती यह सोचता है कि पूर्व दिशा में १०० योजन की मर्यादा है तथापि आज या दो चार दिन तक पूर्व दिशा में १०० योजन जाना नहीं है, अतः यदि मर्यादा का संकोच कर लिया जाय तो कोई हानि नहीं है ऐसा विचार कर दिग्वत की मर्यादा के भीतर ही भीतर अपनी आवश्यकता को देखकर तदनुसार आने जाने के लिए क्षेत्र की मर्यादा का १ दिन २ दिन, अथवा १० दिन के लिए प्रमाण कर लेता है वह देशावकाशिकव्रत कहलाता है।
देशव्रती देशव्रत की मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं करता। भोगोपभोग के साधनों की प्राप्ति के लिए अथवा व्यापारादि कार्य करने के लिए अपनी मर्यादा के भीतर ही प्रयत्न करता है, उसके बाहर नहीं।
इस कार्य के करने से उसके कषायों में और भी क्षीणता आती है, लोभवृत्ति घट जाती है, उदारता आ जाती है, त्याग और संयम की भावना जागृत हो उठती है। अतः पंचाणुव्रतों की स्थिति को पुष्ट करके उनमें गुणवृद्धि करनेवाले ये व्रत हैं, अतः ग्राह्य हैं।१८०। देशावकाशिक व्रत के अतिचारों का वर्णन
(अनुष्टुप्) आनयनाद्यतिचारास्त्याज्याः सन्तापकारकाः । यतः स्यात्स्वात्मशुद्धिस्ते निवासोऽपि निजात्मनि ।।१८१।।
आनयनेत्यादि:- आनयनं प्रैष्यप्रयोगः शब्दानुपातः रूपानुपातः पुद्गलक्षेपश्चेति पञ्चातिचाराः देशावकाशिकव्रतस्य सन्ति। तत्स्वरूपञ्च यथा-एतव्रतान्तर्गतक्षेत्रमर्यादातो बहिःक्षेत्रेषु
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